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( १४८ ) उपदेश में स्वर्ग, नरक अथवा प्रेतयोनि संबंधी विचारों का स्थान ही नहीं है। यदि कभी कोई जिज्ञासु ब्रह्मलोक जैसे परोक्ष विषय के संबंध में प्रश्न करता, भगवान् बुद्ध सामान्यतः उसे समझाते कि परोक्ष पदार्थों के विषय में चिन्ता नहीं करनी चाहिए। वे प्रत्यक्ष दुःख, उसके कारण और दुःख निवारक मार्ग का उपदेश करते। परन्तु जैसे जैसे उनके उपदेश एक धर्म और दर्शन के रूप में परिणत हुए, वैसे वैसे आचार्यों को स्वर्ग नरक, प्रेत आदि समस्त परोक्ष पदार्थों का भी विचार करना पड़ा और उन्हें बौद्ध धर्म में स्थान देना पड़ा। बौद्ध पंडितों ने कथाओं की रचना में जो कौशल दिखाया है, वह अनुपम है। उनका लक्ष्य सदाचार
और नीति की शिक्षा प्रदान करना था। उन्होंने अनुभव किया कि स्वर्ग के सुखों और नरक के दुःखों के कलात्मक वर्णन के समान अन्य कोई ऐसा साधन नहीं जो सदाचार में निष्ठा उत्पन्न कर सके। अतः उन्होंने इस ध्येय को सन्मुख रखते हुए कथाओं की रचना की। उन्हें इस विषय में अत्यंत महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई। इस आधार पर धीरे धीरे बौद्ध दर्शन में भी स्वर्ग, नरक, प्रेत संबंधी विचार व्यवस्थित होने लगे। निदान अभिधम्भ काल में हीनयान संप्रदाय में उनका रूप स्थिर हो गया। किंतु महायान संप्रदाय में उनकी व्यवस्था कुछ भिन्न रूप से हुई।
बौद्ध अभिधम्म में सत्त्वों का विभाजन इन तीन भूमियों में किया गया है-कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर । उनमें नारक, तिर्यंच, प्रेत, असुर ये चार कामावचर भूमियां अपाय भूमि हैंअर्थात् उनमें दुःख की प्रधानता है। मनुष्यों तथा चातुम्महा
१ दीघनिकाय के तेविज्जसुत्त में ब्रह्मसालोकता विषयक भगवान् बुद्ध का कथन देखें। . २ अभिधम्मत्थ संगह परि. ५.
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