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( १४७ ) कटु फल मिलते हैं और वहां जीवों की आयु भी लम्बी होती है। दीर्घ काल तक कर्म का फल भोगने के बाद ही वहां से जीव का छुटकारा होता है। ये नरक हमारी भूमि और पाताल लोक के नीचे अवस्थित हैं।
भाष्य की टीका में नरकों के अतिरिक्त कुम्भीपाकादि उपनरकों की कल्पना को भी स्थान प्राप्त हुआ है। वाचस्पति ने इनकी संख्या अनेक बताई है किंतु भाष्यवार्तिककार ने इसे अनन्त कहा है। ____भागवत में नरकों की संख्या सात के स्थान पर २८ बताई है
और उनमें प्रथम २१ के नाम ये हैं तामिस्र, अंधतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुंभीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अंधकूप, कृमिभोजन, संदंश, तप्तसूमि, वज्रकण्टक शाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि तथा अयःपान । इसके अतिरिक्त कुछ लोगों के मतानुसार अन्य सात नरक भी हैं-क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दंदशूक, अवटनिरोधन, पयोवर्तन, और सूचीमुख । इनमें अधिकतर नाम ऐसे हैं जिन से यह ज्ञात हो जाता है कि उन नरकों में जीवों को किस प्रकार के कष्ट है। बौद्धसम्मत परलोक ____ हम यह कह सकते है कि भगवान बुद्ध ने अपने धर्म को इसी लोक में फल देने वाला माना था और उनके उपलब्ध प्राचीन
५ योगदर्शनव्यास भाष्य, विभूतिपाद २६.
२ भाष्यवार्तिककार ने कहा है कि पाताल अवीचि नरक के नीचे है, किंतु यह भ्रम प्रतीत होता है ।
३ श्रीमद्भागवत (छायानुवाद) पृ० १६४, पंचमस्कंध २६.५-३६.
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