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________________ अध्याय 31 ] लघुचित्र के ऊपर एक दैत्याकार सिर संलग्न है। प्रतीत होता है कि ये रूपाकार यहाँ की स्थानीय परंपराओं के अनुरूप अंकित किये गये हैं। विशेषकर मण्डप की संरचना तो इसी प्रकार की ही रही है। इन साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि यद्यपि पाण्डुलिपि-चित्रों की शैली में रेखाओं और कोणीय अंकन पर बल दिया गया है और इनका रूपांकन पश्चिम-भारतीय या गुजराती शैली पर आधारित है, फिर भी इस आधार पर उन्होंने जिस शैली का विकास किया है वह उस शैली से भिन्न है जो पश्चिम भारतीय शैली में विकसित हुई है। दूसरी ओर, इनकी अंकन-विधि तथा चित्र-नियोजन का शैलीगत प्रयास सन् १४०४ की चित्रित आदि-पुराण की पाण्डुलिपि के समानांतर है--यह इस संभावना की ओर ले जाती है कि नया मंदिर का महा-पुराण दिल्ली क्षेत्र में सन् १४२० के लगभग लिखा एवं चित्रांकित किया गया। मोतीचंद्र जैसे कुछ विद्वान् इस पाण्डुलिपि की तिथि लगभग सन् १४५० मानने के पक्ष में हैं अतः इसके आधार पर हम इस संभावना को अस्वीकार नहीं कर सकते कि यह शैली जैन चित्रों में निरंतर एक लंबे समय तक बिना किसी परिवर्तन के प्रचलित रही। नया मंदिर के महा-पुराण की शैली से प्रायः मिलती हुई एक अन्य पाण्डुलिपि है--भविसयत्तकहा (रंगीन चित्र ३१, चित्र २७८ ख), जो यद्यपि अपूर्ण है तथापि समृद्ध रूप में चित्रित है। यह पाण्डलिपि पहली पाण्डुलिपि से कहीं अधिक रीतिबद्ध है और इसी रीतिबद्धता के कारण यह उससे भिन्न है। इस पाण्डुलिपि में कोई भी चित्र समूचे पृष्ठ पर अंकित नहीं है तथा इसके चित्र-फलकों के आकार में विविधता भी कम है। चित्र-रचना में सजीवता होते हुए भी सरलता है और उनमें चित्रित विषय के तत्त्वों को एक ही धरातल पर एक पंक्ति में ही नियोजित करने की स्पष्ट प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इस पाण्डुलिपि की शैली में जो कुछ थोड़ी-सी शुष्कता है वह यह संकेत देती है कि इसकी प्रेरणा समसामयिक पाण्डुलिपि से ग्रहण करने की अपेक्षा नया मंदिर के महा-पुराण से ग्रहण की गयी है। इसके आधार पर इस पाण्डुलिपि का रचना-क्षेत्र दिल्ली एवं रचना-तिथि लगभग सन १४३० निर्धारित की जा सकती है और इसके लिए नया मंदिर के महा-पुराण का रचनाकाल पंद्रहवीं शताब्दी का मध्य-काल न मानकर लगभग सन् १४२० मानना होगा। चित्रकला की यही परंपरा ग्वालियर में भी प्रचलित थी जिसका प्रमाण हमें पासणाह-चरिउर की पाण्डुलिपि से मिलता है, जो गोपाचल-दुर्ग (ग्वालियर) में सन् १४४२ में रची गयी। इस पाण्डुलिपि के मूलपाठ का प्रणयन सुप्रसिद्ध कवि रइधू (लगभग सन् १३८०-१४८०) द्वारा हुआ जिन्होंने अपने जीवन का बहुत-सा समय ग्वालियर में व्यतीत किया था। पंद्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर जैन कला की प्रखर गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र रहा है। इस काल में पहाड़ी चट्टानों 1 चित्र 279 क तथा ख की तुलना मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1949, क्रमशः चित्र 90, 150 तथा 156 से कीजिए. 2 जैन (राजाराम). रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन. 1974. वैशाली.चित्र 1-9. 3 पूर्वोक्त, पृ 120. 427 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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