SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 को काटकर विशाल प्रतिमाओं का निर्माण हुआ तथा अनेकानेक जैन मूलपाठों की प्रतिलिपियां हुई। प्रतीत होता है कि पासणाह-चरिउ के मूलपाठ की रचना-समाप्ति के तुरंत बाद ही उसकी सचित्र पाण्डुलिपि तैयार की गयी होगी। इस पाण्डुलिपि के चित्र भविसयत्त-कहा के समान हैं जिनकी अवधारणा भी उसी के अनुरूप की गयी है। इस पाण्डुलिपि के चित्र भी अधिकांशतः आयताकार फलकों में अंकित हैं। इन फलकों के आकार दो-तीन प्रकार से निश्चित हैं, जो पृष्ठ के दायीं अथवा बायीं मोर पर नियोजित हैं किंतु कोई भी चित्र आकार में इतना बड़ा नहीं है जो समूचे पृष्ठ को घेर ले। यद्यपि पासणाह-चरिउ के चित्रों की शैली भविस यत्त-कहा के चित्रों की रंग-योजना एवं रूपांकन के अनुरूप है फिर भी इसका चित्र-संयोजन दक्षतापूर्ण है, यद्यपि इसकी रेखाएँ अपनी अधिकांश शक्ति खो चुकी हैं। इसका दुर्बल रेखांकन और चित्रण विशेष उल्लेखनीय नहीं है लेकिन चित्रों की शैली ने उनमें गत्यात्मकता की भावना को संजोये रखा है। मानव-आकृतियों एवं उनकी मुद्राओं के अंकन तथा इन चित्रों में दर्शाये गये नयी शैली के वस्त्राभूषण आदि की परंपरा प्रागे चलकर विकसित हुई; उसे उत्तर-भारत के चित्रों में देखा जा सकता है। इन चित्रों में पुरुषाकृतियों को धोती और उत्तरीय जैसी परंपरा-प्रचलित वेष-भूषा में दर्शाया गया है लेकिन महिला प्राकृतियों में उन्हें धोती एवं दुपट्टा के साथ साड़ी पहने भी दर्शाया गया है। साड़ी के पल्ले को वक्ष के ऊपर से होकर जाते हुए अंकित किया गया है (चित्र २८० क) सैनिकों को जामा, पैजामा और चूड़ीदार पैजामा जैसे नये वस्त्र पहने चित्रित किया गया है, लेकिन ये सैनिक पश्चिम-भारत के चित्रों में पाये गये साहियों की भांति विदेशी न होकर इसी देश के वासी हैं (रंगीन चित्र ३२ की रंगीन चित्र २५, २६ से तुलना कीजिए)। पहले वस्त्रों में यदि कोई अभिकल्पना होती थी तो वह बिंदुओं से निर्मित होती थी लेकिन इन चित्रों में वस्त्रों की अभिकल्पना में पुष्प लता-वल्लरियों और घुमावदार रूपाकारों का प्रयोग हुआ है जो पश्चिम-भारत के चित्रों में प्रचलित था। योग-पट्ट को अपने घुटनों पर लिये बैठने की मुद्रा में अंकित पुरुषाकृतियों के अभिप्राय भविष्यत्त-कहा में भी हैं, लेकिन इस प्रकार के अभिप्राय इस पाण्डुलिपि के चित्रों में पर्याप्त संख्या में देखे जाते हैं जिसके कारण इसे इस शैली की एक विशेषता मानी जा सकती है। यद्यपि पूर्ववर्ती पाण्डुलिपि-चित्रों में प्रायः आकाश को एक पट्टी के रूप में दर्शाया जाता था। किंतु इन चित्रों में इस पट्टी को घटाकर ऊपरी कोनों पर त्रिकोणाकार धब्बे या ऊपरी भाग में एक 1 जैन (राजाराम), पूर्वोक्त, पृ 130-131; राजस्थान के जैन शास्त्र-भण्डारों की ग्रंथ-सूची. पाँच खण्ड, संपाः कालसीवाल (कस्तूरचंद). 1949-62. जयपुर. खण्ड 1, पृ 192. नं. 137, पृ 208 नं. 2453 खण्ड 2, पृ 140, नं. 171, पृ 227, नं. 1144, पृ 233, नं. 1223, पृ241, नं. 1320, पृ 46 नं. 5013 खण्ड 3 पृ 196, नं. 119; खण्ड 4, पृ 172, नं. 3008. 428 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy