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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 7 नियमानुसार चित्र पृष्ठ के दायीं या बायीं ओर अंकित हैं। इस प्रकार इस पाण्डुलिपि में भी चित्रनियोजन की विशेषता पश्चिम-भारत की पाण्डुलिपियों से भिन्न है। इस पाण्डुलिपि की चित्रण-शैली सन् १४०४ के आदि-पुराण की चित्रण-शैली से बहुत समानता रखती है। यह समानता विशेषकर नारी-आकृतियों के अंकन में स्पष्टतः देखी जा सकती है (चित्र २७६ क, ख की चित्र २७८ क से तुलना कीजिए)। इन दोनों पाण्डुलिपियों के चित्रों में ये विशेषताएं इस प्रकार हैं कि नारी-प्राकृतियों की कटि अत्यंत क्षीण है तथा वेशभूषा में पगड़ी भी सम्मिलित है जिसपर एक-जैसी ही धारियों की अभिकल्पनाएँ अंकित हैं। रंग-योजना के अंतर्गत इन दोनों पाण्डुलिपियों के चित्रों में प्राथमिक रंगों को प्रमुखता दी गयी है जो परस्पर तुलनीय हैं, परंतु महा-पूराण के चित्रों पर हलके पीले रंग की लाख वाली वानिश है इसलिए इन दोनों पाण्डलिपियों के चित्रों के रंगाभासों का स्तर परस्पर एक समान नहीं है। यद्यपि इस पाण्डुलिपि के चित्रों में भी रेखीय अंकन की तकनीक का उपयोग हुआ है तथापि, इसके अनेक चित्र भावाभिव्यक्ति पूर्ण हैं । ये पश्चिम-भारत की प्रचलित परंपरा से भिन्नता रखते हैं (रंगीन चित्र २६ की रंगीन चित्र २५ से तुलना कीजिए) । इस समय पश्चिम-भारत की चित्र-शैली ने रेखांकन में परिष्कृति तथा रंग-योजना में व्यापकता की उपलब्धियों को प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार चित्र-संयोजन में अधिक जटिलता एवं अंकन में सूक्ष्मता आ गयी है और रंग-योजना में नीलम, सोने और चांदी के रंगों के जुड़ जाने से व्यापकता आ गयी है। इसके उपरांत भी सरलता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है जिसमें चित्र का नियोजन बड़े से बड़े फलक पर प्रसार पाने लगा है और वह कम से कम जटिल होने लगा है। स्थापत्यीय संरचनाओं, उपस्कर के उपादानों एवं वस्त्रों में पाये जाने वाले अलंकरणों की अतिशयता में कमी आने लगी है। रंगयोजना प्राथमिक रंगों तक ही सीमित होने लगी है, जब कि इसके विपरीत, पश्चिम-भारत के समसामयिक चित्रों की रंग-योजना बहुरंगी रही है। इन चित्रों में बादलों और वृक्षों को जिन रूपाकारों में चित्रित किया गया है, वे उन रूपाकारों के संक्षिप्त रूप हैं जिन्हें हम पश्चिम-भारत के चित्रशैली-परंपरा में देख चुके हैं। फिर भी, पश्चिम-भारत में प्रचलित शैली का घटिया रूपांतरण होने के कारण इस पाण्डुलिपि के चित्र हमें प्रभावित नहीं कर सके हैं। वैसे इन चित्रों में ओजस्विता और जीवंतता की भावना है। इन चित्रों की प्राकृतियाँ सजीवता तथा गतिशीलता से अनुप्राणित हैं (चित्र २७६ क, ख)। इस पाण्डुलिपि के चित्रों में ऐसे दो सूत्र भी खोजे जा सकते हैं जो पश्चिम-भारत के पाण्डुलिपि-चित्रों में नहीं पाये जाते । इनमें से एक सूत्र मण्डप के स्थापत्य (चित्र २७६ क) का है और दूसरा रथ की अभिकल्पना का (चित्र २७६ ख)। मण्डप के स्थापत्य का अंकन अपने समसामयिक पश्चिम-भारत के अंकन से भिन्न है। इस मण्डप पर जालीदार फलकों के जंगले नहीं हैं बल्कि इसके गुंबद लहरदार हैं। रथ की अभिकल्पना में उसका आधार सपाट है तथा उसके सामने के लंब रूप भाग 426 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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