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________________ अध्याय 31] लघुचित्र पाण्डुलिपि के चित्र पूरे नहीं हैं तथापि यह पाण्डुलिपि पंद्रहवीं शताब्दी की पश्चिम-भारतीय अथवा गुजराती चित्रकला की विविधताओं और उनके विकास को समझने में मूल्यवान सामग्री उपलब्ध करती है। इस पाण्डुलिपि में दो सौ सत्तावन पृष्ठ हैं जिनमें तीन सौ सत्रह स्थान चित्रों के लिए चिह्नित किये गये हैं। परंतु दुर्भाग्य से इनमें से मात्र एक--पहला स्थान--ही चित्रित है (चित्र २७८ क); शेष चिह्नित स्थान रिक्त हैं। यह चित्र रेखीय तकनीक में अंकित है जिसके लिए कोणीय अंकन का उपयोग हुआ है। मानव-प्राकृतियों में विस्फारित आँखों का अंकन है। रंग-पट्टिका मुख्यत: प्रारंभिक रंगों तक ही सीमित है । विस्तृत पत्र-पुष्पों की रूपरेखा-युक्त छत्राकार वितान, घुमावदार पाये-युक्त पलंग, पत्र-पुष्पों का विस्तृत अलंकरण आदि जैसे विविध अभिप्रायों का अंकन उस शैली का स्मरण कराती है जो पश्चिम-भारत में प्रचलित थी। इस पाण्डुलिपि की चित्र-योजना--चित्रों की संख्या, चित्रों के आकार तथा इन चित्रों का पृष्ठ पर नियोजन (स्थान-निर्धारण) आदि--एक ऐसी अवधारणा प्रस्तुत करती है जो पश्चिम-भारत की पाण्डुलिपियों में पाये गये औपचारिक संयोजन से नितांत भिन्न है। पश्चिम-भारत की पाण्डुलिपियों की अपेक्षा इस पाण्डुलिपि में मात्र चित्रों की बहलता ही नहीं है अपितु चित्रों के आकारों में एक व्यापक विविधता भी है । इन चित्रों का आकार पूरे पृष्ठ का भी है और छोटे-बड़े विभिन्न अाकारों के लंबे, क्षतिजिक अथवा आयताकार एवं वर्गाकार फलक का भी है। पूरे पृष्ठ का आकार पश्चिम-भारत की पाण्डुलिपियों के पृष्ठ के आकार से बड़ा है । पृष्ठ पर चित्रों का नियोजन सामान्यतः पश्चिम-भारत की पाण्डुलिपियों की भाँति, दायीं या बायीं ओर किया गया है। इसके साथ ही, एक पृष्ठ पर विभिन्न आकार के दो चित्रों के बनाने की योजना भी रही है जो असामान्य नहीं है। पृष्ठों पर जिस प्रकार से मूलपाठ और चित्रों के नियोजन की व्यवस्था की गयी है वह कुल मिला कर ऐसा लचीलापन प्रदर्शित करती है जो पश्चिम-भारत की समकालीन पाण्डुलिपियों के रीतिबद्ध रूप से अवधारित प्रारूप में नहीं पाया जाता। संभवत: इस नयी प्रवृत्ति ने फारसी चित्रकला-परंपरा के प्रभाव-स्वरूप इन चित्रों में स्थान पाया है। इस प्रकार इस पाण्डुलिपि के चित्रों की शैली में जहाँ पश्चिम-भारत की सचित्र पाण्डुलिपियों की परंपराओं का निर्वाह हा है वहीं चित्रों के नियोजन में यह पाण्डुलिपि उनसे परे हट गयी है। सन् १४०४ की इस प्रादि-पुराण पाण्डुलिपि के चित्र-नियोजन तथा चित्रण-शैली के समान आधार पर एक अन्य दूसरी सचित्र पाण्डुलिपि महा-पूराण की है जो दिल्ली के दिगंबर जैन नया मंदिर के संग्रह में सुरक्षित है ।2 इस पाण्डुलिपि में अनगिनत चित्र हैं लेकिन उनके आकारों में बहत कम विविधता है और वे कुछ विशेष आकार के ही हैं। इस पाण्डुलिपि के एक पृष्ठ पर दो से अधिक चित्र भी अंकित हैं, जो पहली पाण्डुलिपि-परंपरा के निर्वाह को परिलक्षित करती है। 1 मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1949, रेखाचित्र 59, 89,90. 2 मोतीचंद्र. 'एन इलस्ट्रेटेड मैन्युस्क्रिप्ट ऑफ़ द महापुराण इन दि कलेक्शन ऑफ़ श्री दिगंबर जैन नया मंदिर, दिल्ली', ललित कला, 5. पृ 68-81. 425 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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