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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
[ भाग 7
पाण्डुलिपि जैसी विविधता ही। और न इनकी मानव-आकृतियों में देवसा-नो पाडो की कल्प-सूत्र तथा जामनगर की कल्प-सूत्र पाण्डुलिपि की भांति फारसी या सुलतानी काल की वेशभूषा ही अंकित है।
सामान्यतः सचित्र पाण्डुलिपियों की अलंकृत किनारियों का अभिप्राय चित्र के साथ आलंकारिक सामंजस्य स्थापित करना रहा है परंतु इस पाण्डुलिपि के कुछ चित्रों में इन किनारी-अलंकरणों ने उन चित्रों के पूरक का कार्य किया है जो या तो इसी पृष्ठ पर अंकित हैं (रंगीन चित्र ३० ख), या इससे अासन्न अगले पृष्ठ पर। इनका नियोजन अत्यंत निपुणता के साथ किया गया है जिससे पाण्डुलिपि पढ़ते समय खोले गये दोनों आसन्न पृष्ठ एक ही दिखाई दें। एक स्थान पर तो समूची घटना को मात्र किनारी के चित्र-फलक पर ही अंकित कर दिया गया है अतः इस किनारी के भीतर इसके साथ कोई दूसरा चित्र अंकित नहीं किया गया है। समूची कथा को किनारी के चित्रफलकों में अंकित करने की यह विधि यद्यपि यदा-कदा ही पायी गयी है तथापि यह कोई नयी विधि नहीं है क्योंकि इस प्रकार की विधि का अंकन सन् १४५६ की चित्रित पाटन की कल्प-सूत्र प्रति में देखा जा चुका है। पाटन की यह कल्प-सूत्र पाण्डुलिपि पाटन के शामलाजी-नी पोल स्थित भण्डार में सुरक्षित है।
इस पाण्डुलिपि की प्रशस्ति से हमें यह तो जानकारी उपलब्ध है कि इसकी रचना विक्रम संवत् १५५१ (सन १४६४) में हुई। परंतु इसके बारे में कोई उल्लेख नहीं है कि यह पाण्डुलिपि किस स्थान पर चित्रित हई। फिर भी इस पाण्डुलिपि के चित्रों की सन् १४७२ की उत्तराध्ययन-सूत्र तथा लगभग सन् १४७५ की देवसा-नो पाडो की सुपरिचित पाण्डुलिपि के चित्रों से तुलना करने पर इनमें पायी जाने वाली शैलीगत समानता, इनकी रंग-योजना तथा रंग-योजना में पृष्ठभूमि में तीन श्वेत रंग के बिन्दुओं के समूह का अंकन (रंगीन चित्र ३० क की रंगीन चित्र २८ ग से तुलना कीजिए) और किनारी के अलंकरण इस अनुमान के लिए पर्याप्त अवसर देते हैं कि यह पाण्डुलिपि पश्चिमभारत में कहीं चित्रित हुई है। इस पाण्डुलिपि की समूची अवधारणा उस 'समृद्ध शैली' की विशेषताओं के अनुरूप है जो पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य पश्चिम-भारत में प्रचलित थी।
उत्तर-भारत
उत्तर-भारत में दिगंबर जैन संप्रदाय की कागज पर चित्रित सबसे प्रारंभिक ज्ञातव्य पाण्डलिपि प्रादि-पुराण की है जो योगिनीपुरा (दिल्ली) में सन् १४०४ में चित्रित हुई। यद्यपि इस
1 चित्र 276 ख, 277 क, ख की तुलना मोतीचंद्र एवं खण्डालावाला, पूर्वोक्त, 1969, चित्र 6, 7, रेखाचित्र
49-50 एवं 59-99 से कीजिए. 2 मोतीचंद्र एवं शाह, पूर्वोक्त, 1968, रेखाचित्र 12, 13. 3 नवाब (साराभाई). 'जैन जातकोना चित्र-प्रसंगोवाली कल्प-सूत्रानी सुवर्णाक्षरी प्रत', प्राचार्य विजय वल्लभ-सूरि
स्मारक-ग्रंथ, 1956, बंबई. पृ 161-167. 4 दोशी (सरयू). 'एन इलेस्ट्रेटेड प्रादिपुराण ऑफ़ ए. डी. 1404 फ्रॉम योगिनीपुरा,' छवि. 1972. वाराणसी.
पृ 383-91.
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