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अध्याय 31 ]
लघुचित्र
में सन् १५०१ में चित्रित किया गया था । हमने इस पाण्डुलिपि के फोटोग्राफों ( छाया चित्रों) एवं रंगीन स्लाइडों को देखा है और इसका निरीक्षण करने पर यह निष्कर्ष पाया है कि देवासा - नो पा भण्डार की पाण्डुलिपि इससे कुछ समय पूर्व की प्रतीत होती है । यह पाण्डुलिपि इस समय कहाँ पर है - यह रहस्य बना हुआ है । लगभग सन् १४७५ की चित्रित देवसा -नो पाडो भण्डार की पाण्डुलिपि से सर्वप्रथम जो फारसी प्रभावाधीन किनारी अलंकरण की प्रवृत्ति भड़ौंच के समुद्र तटवर्ती क्षेत्र से प्रारंभ हुई थी उसे आगे चलकर पंद्रहवी शताब्दी के अंत में पाटन ने भी ग्रहण कर लिया । कुछ लेखक देवसा-नो पाडो भण्डार की पाण्डुलिपि का समय सोलहवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल मानते हैं और सन् १५०१ की पाटन में चित्रित पाण्डुलिपि के संदर्भ द्वारा अपने मत को समर्थित करते हैं ।
'समृद्धि - काल' की अन्य उल्लेखनीय पाण्डुलिपियों में कल्प-सूत्र की एक अन्य पाण्डुलिपि भी हैं जो बड़ौदा के नरसिंहजी - नी पोल स्थित प्रात्मानंद जैन ज्ञान मंदिर के हंसविजयजी के संग्रह में 12 यह पाण्डुलिपि पत्र - पुष्प और पशु-पक्षियों की अभिकल्पनाओं द्वारा अति समृद्ध रूप से अलंकृत है ।
माण्डू
कल्प-सूत्र की एक अन्य असाधारण रूप से उत्तम पाण्डुलिपि विजयानंद सूरीश्वरजीना संघाडा के उपाध्याय सोहनविजयजी के संग्रह में है । यह पाण्डुलिपि सन् १४६६ की है । इस पाण्डुलिपि के चित्र इस काल के चित्रित सामान्य चित्रों से अलग प्रकार की शैली में हैं। बड़ौदा के श्रात्मानंद ज्ञान मंदिर में कुछ समय उपरांत कल्प-सूत्र की एक प्रति और सम्मिलित हुई जो में चित्रित हुई थी और मुनि कांतिविजयजी के संग्रह से यहाँ आयी थी । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि यह पाण्डुलिपि माण्डू में चित्रित हुई है और पर्याप्त श्राकर्षक भी है, तथापि यह उस शैली की नहीं है जिसमें सन् १४३६ की माण्डू में रची हुई कल्प-सूत्र तथा इसी शैली की इसी सन् की रची पुण्यविजयजी के संग्रह की कालकाचार्य - कथा + की पाण्डुलिपियाँ हैं । मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह की माण्डू से प्राप्त पाण्डुलिपि की शैली गुजरात में प्रचलित सामान्य जैन शैली से प्रत्यावर्तित है । इससे ज्ञात होता है कि पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य माण्डू में चित्रकारों के विभिन्न समूह क्रियाशील थे जिनमें से कुछ सामान्य गुजराती शैली में कार्य कर रहे थे तथा कुछ चित्रकारों ने कुछ अधिक प्रगतिशील होने कारण किन्हीं ऐसी विशेषताओं को विकसित किया जिन्हें माण्डू की निजी शैली कहा जा सकता है । इन विशेषताओं को सन् १४३६ के रचे कल्प- सूत्र में देखा जा सकता है ।
1 मोतीचंद्र एवं शाह, पूर्वोक्त, 1968, पृ 364, रेखाचित्र 12-13.
2 मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1949, रेखाचित्र 139 147.
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वही, रेखाचित्र 148-154.
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प्रमोदचंद्र 'ए यूनीक कालकाचार्य कथा मैन्युस्क्रिप्ट इन द स्टाइल ऑफ़ द माण्डू कल्प-सून ऑफ़ ए. डी. 1439 - बुलेटन ऑफ दि अमेरिकन एकादमी श्रॉफ बनारस 1. पू 1-10, रेखाचित्र 1-20.
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