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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
[ भाग 1
यहाँ कुछ महत्त्व का एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रचलित शैली पर उस समय विचार किया जाना चाहिए जब किसी सचित्र जैन पाण्डुलिपि-चित्रों की शैली की अनुरूपता स्थापित कर पाना संभव न हो। यह तथ्य नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित एक चित्र से प्रमाणित है। वह चित्र है कल्प-सूत्र-कालकाचार्य-कथा (प्रविष्टि सं० ५१.२१) का। इसपर विक्रम संवत् १३२१ (सन् १२६४) की तिथि का उल्लेख है। लेकिन यह स्पष्टत: संभव नहीं है क्योंकि कोई भी। पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्षों के काल का रचित नहीं है वरन् यहाँ तक कि ऐसी कोई भी कागज पर चित्रित पाण्डुलिपि अस्तित्व में नहीं है जो तेरहवीं शताब्दी की रची हुई हो। अतः यह स्पष्ट है कि यह पाण्डुलिपि, जिसमें प्रशस्ति भी है, सन् १२६४ की ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि है और यह प्रतिलिपि पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की गयी. तथा इसे समसामयिक शैली के चित्रों से अलंकृत कर दिया गया।
काल खण्डालावाला
दिगंबर पाण्डुलिपियाँ
दिगंबर जैनों में सचित्र पाण्डुलिपियों की परंपरा बारहवीं शताब्दी से आरंभ होती हुई देखी जा सकती है। इस परंपरा ने अगली शताब्दियों में दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भारत के भागों में व्यापक रूप से प्रचलन पा लिया। लेकिन इस संप्रदाय की पाण्डुलिपियों की संख्या श्वेतांबर जैन पाण्डुलिपियों की विपुल संख्या की अपेक्षा अत्यंत सीमित रही।
ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि-काल
षट-खण्डागम, महा-बंध और कषाय-पाहुड-ये तीन पाण्डुलिपियाँ दिगंबर जैनों की प्राचीनतम सचित्र पाण्डलिपियाँ प्रतीत होती हैं (३० वें अध्याय में रंगीन चित्र १२-२१)। ये पाण्डुलिपियाँ कर्नाटक स्थित मूडबिद्री के जैन सिद्धांत-बसदि के संग्रह में सुरक्षित हैं । ये कर्म-सिद्धांत से संबंधित एवं मूल प्राकृत भाषा के ग्रंथ हैं जो कन्नड़ी लिपि में लिखित हैं। इन पाण्डुलिपियों में चित्रों की संख्या अत्यंत सीमित है। षट्-खण्डागम में दो, महा-बंध में सात तथा कषाय-पाहुड़ में मात्र चौदह चित्र हैं। इन सभी पाण्डलिपियों के चित्रों में ज्यामितीय अंकन अथवा पत्र-पुष्पों की पट्रिकाएँ यूक्त आलंकारिक पदक तथा देवी-देवताओं, साधुओं, पाण्डुलिपियों के दानदाताओं अथवा उपासकों के चित्र अंकित हैं।
1 ये पाण्डुलिपियाँ धवला, जय-धवला और महा-धवला के नाम से भी जानी जाती हैं । दोशी (सरय), 'ट्वेल्व्थ
सेंचुरी इलस्ट्रेटेड मैन्युस्क्रिप्ट्स फॉम मूडबिद्री', बुलेटिन ऑफ दि प्रिंस ऑफ वेल्स, म्यूजियम, बाम्बे, 83; 1962-64, 4 29-36. /शिवराम मूर्ति (सी). साउथ इण्डियन पेण्टिग. 1968. नई दिल्ली. प 90-96. [द्वितीय भाग में अध्याय 30 भी देखें-संपादक.]
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