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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 7 चित्रित किया गया है जिस प्रकार यहाँ पर वह अोढ़ी जाती है। यहाँ पर ओढ़नी वक्षस्थल के ऊपर एक चौडे बँधाव के रूप में पहनी जाती है। यह विशेषता माण्ड के कल्प-सत्र में भी देखी जाती है तथा जौनपुर की पाण्डुलिपि के अनेक पृष्ठों में भी है। संगीतकारों को धोती और पगड़ी पहने हुए दर्शाया गया है। इस संप्रदायगत कला की प्रचलित परंपराओं में परिवर्तन की हवा धीरे-धीरे बहने लगी जो प्रचालित रूप को क्षीण करती गयी। स्वयं गुजरात के अंदर भडौंच के निकट स्थित गांधर बंदर में एक अत्यंत अलंकृत पाण्डुलिपि रची गयी, जिसे अहमदाबाद के देवसा-नो पाडो भण्डार की कल्प-सूत्र-कालकाचार्य-कथा पाण्डुलिपि के नाम से जाना जाता है । इस पाण्डुलिपि का एक पृष्ठ नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है (रंगीन चित्र २८ क, ख)। इसके अनेक चित्र-फलक ऐसे हैं जिनके पूरे पृष्ठ पर आलंकारिक किनारी अंकित है। प्रालंकारिक किनारी के ये अंकन प्रत्यक्षतः फारसी तैमूर-चित्र-शैली के प्रभाव का परिणाम हैं। क्योंकि सुलतानी दरबारों के अनुयायी गुजरात में भी थे इसलिए इन चित्रों में प्रदर्शित वस्त्राभूषण एवं पगड़ी आदि में सुलतानी दरबारों के शैलीपरक वस्त्राभूषणों की छाप परिलक्षित होती है। इस पाण्डुलिपि का रचनाकाल लगभग सन् १४७५ निर्धारित किया जा सकता है। इसमें संदेह नहीं कि यह पाण्डुलिपि उस समूह की अत्यंत मूल्यवान एवं विशिष्ट पाण्डुलिपि है जिन्हें 'समृद्धि-काल' की निमित जैन पाण्डुलिपियाँ कहा जा सकता है और जिनका काल सन् १४२७ से १५५० के मध्य रहा है। फारसी चित्रकला तथा संभवत: उसके कालीनों, वस्त्रों एवं बर्तनों आदि अनेक प्रकार की अभिकल्पनाओं के प्रभावाधीन इन चित्रों की आलंकारिक संरचना में अनेकानेक पत्र-पुष्पादि तथा विविध प्रतीकों ने स्थान पाया है। ये चित्रकारों द्वारा एक नये दृष्टिकोण के अपनाये जाने का संकेत देते हैं। इन चित्रों में दृश्य-चित्र एवं समुद्र के दृश्य-चित्र भी चित्रित किये गये हैं। चित्रण की ये प्रवृत्तियाँ सन् १४५१ के रचे गये वसंत-विलास के पट2 से प्रारंभ परिलक्षित हैं। यह पट इस समय वाशिंगटन की फियर गैलरी में है। इसकी विषय-वस्तु संप्रदागत न होकर प्राचीन गुजराती का एक 'फागु' है जिसका संबंध वसंतागम ऋतु में प्रेम-व्यापार से है। यही स्थिति बालगोपाल-स्तुति शीर्षक पाण्डुलिपि की है। यह पाण्डुलिपि श्रीकृष्ण की बाललीलाओं से संबंधित है। इस पाण्डुलिपि से यह संकेत मिलता है कि इस प्रकार की समस्त पाण्डुलिपि के चित्रकार यद्यपि जैन चित्र-शैली से परे नहीं हटे हैं परंतु उन्होंने संप्रदायगत श्रृंखला में भी स्वयं को आबद्ध करना नहीं स्वीकारा है। राष्ट्रीय संग्रहालय में जो एक पृष्ठ (रंगीन चित्र २८ ग) सुरक्षित है वह देवसा-नो पाडो भण्डार की पाण्डुलिपि का प्रतीत होता है, इस तथ्य का उल्लेख ऊपर कर दिया है। देवसा-नो पाडो भण्डार की पाण्डुलिपि जैसी ही एक अन्य पाण्डुलिपि है जिसे पाटन 1 खण्डालावाला एवं मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1969, पृ 29-43. यहाँ पर इस पाण्डुलिपि की सविस्तार चर्चा की गयी है. 2 नॉर्मन ब्राउन (डब्ल्यू). वसंत-विलास, 1962. कोनेक्टीकट. 3 नॉर्मन बाउन (डब्ल्यू.). 'अर्ली वैष्णव मिनिएचर पेंटिंग्स फ्रॉम वेस्टर्न इण्डिया', ईस्टर्न पार्ट, 2. 1930. 167. 206. 1418 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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