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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 चेहरों की प्रेरणा चौदहवीं शताब्दी के फारसी चित्रों से ग्रहण की गयी है। इसका कारण यह है कि साही लोग विदेशी थे अतः इन विदेशी लोगों के चित्रांकन के लिए फारसी चित्रों में पाये जाने वाले मंगोल जाति के लोगों की मुखाकृति को अत्यंत उपयुक्त माना गया। इसी काल की एक अन्य कल्प-सूत्र-कालकाचार्य-कथा की पाण्डुलिपि का उल्लेख किया जा सकता है जो जैसलमेर-भण्डार में है और जिसके लिए नवाब साराभाई ने पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ का समय सुझाया है । इसके चित्र छोटे आकार, लगभग ८४८ सेण्टीमीटर के हैं। चित्रों की लाल रंग की पृष्ठभूमि पर सोने और चांदी के रंगों का उपयोग किया गया है। चित्रों का कलात्मक स्तर अच्छा है। चित्रों का आकार उत्तरवर्ती कागज पर रचित चित्रों की अपेक्षा, जो आकार में बड़े होने लगे थे, ताड़पत्रीय चित्रों के आकार के बहुत निकट हैं। चित्रों की संख्या तेंतीस है। यह संख्या पाण्डुलिपियों में चित्रों की बढ़ती हई संख्या की प्रवृत्ति का सूचक है। यह पाण्डुलिपि प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम की पाण्डुलिपि से रचना-तिथि में कुछ पूर्व की प्रतीत होती है और इसके लिए भी चौदहवीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्ष का समय निर्धारित किया जा सकता है (चित्र २७५ ख) । कागज पर सचित्र जैन पाण्डुलिपियों की संख्या इतनी विपूल है कि इस लेख में उनमें से मात्र कुछ उन्हीं पाण्डुलिपियों की चर्चा की जा सकती है जो जैन चित्रावली में पाण्डुलिपि-चित्र-शैली के विकास से प्रत्यक्षतः संबद्ध रही हैं । इनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ काल की रची हुई कल्प-सूत्र-कालकाचार्य-कथा की पाण्डुलिपि है जिसकी रचना-तिथि सन् १४१५ है। इसका कल्प-सूत्र भाग कलकत्ता के श्री बिड़ला के संग्रह में है, और कालक-भाग बंबई के श्री प्रेमचंद जैन के निजी संकलन में (रंगीन चित्र२५ क, ख, ग और घ) 12 कला उच्च श्रेणी की है और अनेक चित्र तो निस्संदेह ही अत्यंत आकर्षक हैं । यह पाण्डुलिपि किस क्षेत्र में चित्रित हुई है यह ज्ञात नहीं है, परंतु संभवतः यह पाटन में चित्रित हुई होगी। राष्ट्रीय संग्रहालय में सन् १४१७ की रची कल्पसूत्र की एक अन्य पाण्डुलिपि उपलब्ध है । यह समय और कलात्मकता की दृष्टि से इसके अत्यंत समीप है (रंगीन चित्र २७ और चित्र २७४) । इन पाण्डुलिपियों के प्रारंभकालीन होते हुए भी इनके चित्रों में कई परंपरागत विशेषताएँ स्पष्टतः विकसित हो गयी हैं, जैसे नुकीली नाक, छोटी नुकीली दोहरी ठोढ़ी, मुद्राएँ तथा काष्ठ पुतलिका जैसी रूप-प्रतीति आदि। लंदन स्थित इण्डिया प्रॉफिस की कल्पसूत्र पाण्डुलिपि, जो सन् १४२७ की रची हुई है। अत्यंत अलंकृत है और इसपर मूलपाठ सोने और चांदी की स्याहियों से लिखा हुआ है। अत्यंत संपन्न रूप से अलंकृत पाण्डुलिपियों में से यद्यपि अधिकांशतः पाण्डुलिपियों के पृष्ठ रंगीन हैं जिनपर सोने और चांदी की स्याहियों से लिखा गया है और इस प्रकार की पाण्डुलिपियाँ उत्तरवर्ती काल की हैं तथापि इण्डिया प्रॉफिस की यह पाण्डलिपि 1 नवाब (साराभाई), पूर्वोक्त, रेखाचित्र 20 से 50, 60, 65, 70, 75, 78, 83 और 86 (रंगीन). 2 खण्डालावाला (काल) एवं मोतीचंद्र. न्यू डोक्यूमेण्ट्स मॉफ़ इण्डियन पेंटिंग-ए रिएप्राइजल. 1969.बंबई. पृष्ठ 15 एवं रेखाचित्र 5-8. 3 कुमारस्वामी (आनंद). नोट्स ऑन जैन पार्ट. जर्नल ऑफ इण्डियन आर्ट एण्ड इण्डस्ट्री, 16 नं, 122-128. 1913. चित्र 1, रेखाचित्र 5. 416 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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