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________________ प्रध्याय 31] लघुचित्र शैली विशेष रूप से उस शैली से मिलती-जुलती है जो गुजरात में प्रचलित थी। इससे यह भी संकेत मलता है कि गुजरात में जो शैलियाँ प्रचलित थीं वही शैलियाँ चौदहवीं शताब्दी के मध्य उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्र में भी प्रचलन में थीं। संप्रदायगत मुद्राएँ तथा चित्रों की सीमित संख्या यह बतलाती है कि इन पाण्डुलिपियों की विशेषताएँ इस समय भी उनसे बहुत निकट रूप से शृंखलाबद्ध थीं जो ताड़पत्रीय पण्डलिपियों की शैलियों में देखी गयी हैं। कागज पर लिपिबद्ध एक अन्य पाण्ड । मुनि जिनविजयजी के पास है, जिसके लेख में यह उल्लेख है कि यह पाण्डुलिपि विक्रम संवत् १४२४ (सन् १३६७) में लिखी गयी तथा किसी देहेद नामक व्यक्ति द्वारा विक्रम संवत् १४२७ (सन् १३७०) में संघतिलक-सूरि को भेंट की गयी (चित्र २७५ क)। इसके पृष्ठ की चौड़ाई ७.५ सेण्टीमीटर है तथा प्रत्येक पृष्ठ पर सात पंक्तियाँ लिखी गयी हैं। चित्रों की कुल संख्या आठ है और ये चित्र ७.५४५ सेण्टीमीटर माप के हैं। मुनि जिन विजयजी का मत है कि यह कागज पर सचित्र जैन पाण्डुलिपियों में ज्ञातव्य सबसे प्रारंभिक पाण्डुलिपि है । मैंने इस पाण्डुलिपि को बहुत वर्ष पहले देखा था लेकिन यह पाण्डुलिपि अब उपलब्ध नहीं हो सका है जिससे इसका अधिक अध्ययन किया जा सके। अतः इसके विषय में यहाँ दी गयी जानकारी से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। यह संभव है कि इस पाण्डुलिपि की दी गयी तिथि सही हो। इस पाण्डलिपि के चित्रों का कलात्मक स्तर अधिक उन्नत नहीं है जिसका कारण यह हो सकता है कि इसके चित्रकार की क्षमताएँ सामान्य स्तर की रही हों। ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के चित्रों में गुणों के स्तर पर पर्याप्त अंतर रहा है। इस पाण्डुलिपि में आठ चित्र हैं जबकि उत्तरवर्ती कागज पर लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में चित्रों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसका उल्लेख किये बिना नहीं रहा जा सकता । अहमदाबाद के एल० डी० इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी के संग्रह में शांतिनाथ-चरित की पाण्डुलिपि है जिसपर विक्रम संवत् १४५३ (सन् १३६६) तिथि लिखी हुई है। लेकिन इस पाण्डुलिपि की जो प्रशस्ति है वह उत्तरवर्ती काल की जोड़ी हुई प्रतीत होती है। शैली के आधार पर भी इस पाण्डुलिपि के लिए पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पूर्व का समय निर्धारित किया जाना संभव नहीं है। कागज पर लिपिबद्ध प्रारंभिक जैन पाण्डुलिपियों में सर्वोत्तम और सबसे प्रथम पाण्डलिपि कल्पसूत्र-कालकाचार्य-कथा की है जो प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम में है और जिसके लिए हम चौदहवीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्षों का समय सुझा सकते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कालकाचार्यकथा के चित्रों में कालक को सहारा देने वाले साहियों के चेहरे मंगोल जाति के लोगों जैसे हैं। इन 1 मोतीचंद्र एवं शाह, पूर्वोक्त, पृ 378 तथा परवर्ती, रेखाचित्र 6. 2 मोतीचंद्र. 'एन इलस्ट्रेटेड मैन्युस्क्रिप्ट मॉफ दि कल्पसूत्र एण्ड कालकाचार्य-कथा', बुलेटिन प्रॉफ द प्रिंस प्रॉफ वेल्स म्यूजियम, 4, 1953-54, पृ 40 तथा परवर्ती, चित्र 7-14. 415 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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