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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [भाग 1 उमाकांत प्रेमानंद शाह के मतानुसार कागज पर लिपिबद्ध की हुई सबसे प्रारंभिक जैन सचित्र पाण्डुलिपि कल्प-सूत्र-कालकाचार्य-कथा है जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् १४०३ (१३४६ ई.)1 है। इस पाण्डुलिपि का फलक कम चौड़ा है जिसका माप मात्र २८४८.५ सेण्टीमीटर है और एक पृष्ठ पर मात्र छह पंक्तियाँ लिखी गयी हैं। पाण्डुलिपि के इस रचनाकाल को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसकी तिथि विक्रम संवत् १४०३ का उल्लेख इसके लेख में नहीं है वरन् एक पृष्ठ के हाशिए पर है जो बाद में लिखी गयी प्रतीत होती है। इस पाण्डुलिपि के कल्प-सूत्र-भाग के अंत में यह उल्लेख है कि यह पाण्डुलिपि विक्रम संवत् १५०५ (सन् १४४८) में महावीर-भण्डार में आयी। संभावना यह है कि सन् १४४८ में ही इस पाण्डुलिपि का निर्माण हुआ और जैसे ही यह तैयार हुई, वैसे ही, उसी वर्ष, इस भण्डार में आ गयी। शैलीगत आधार पर भी इस पाण्डुलिपि के लिए सन् १३४६ बहुत पूर्व का समय बैठता है। इस निष्कर्ष का समर्थन कल्पसूत्र-कालकाचार्य-कथा की एक अन्य पाण्डुलिपि से होता है जो राष्ट्रीय संग्रहालय (प्रविष्टि-संख्या ५१.५३) में है। यह पाण्डुलिपि शैली और पृष्ठ के माप में पूर्वोक्त पाण्डुलिपि के समान है (रंगीन चित्र २६)। इन दोनों पाण्डुलिपियों के पृष्ठों का माप २८४८.५ सेण्टीमीटर है तथा प्रत्येक पृष्ठ पर छह पंक्तियाँ ही लिखी हुई हैं। दोनों पाण्डुलिपियों के चित्रों की शैली एक समान है और यहां तक कि इन चित्रों के आकार भी एक जैसे ही हैं। राष्ट्रीय संग्रहालय की पाण्डुलिपि की प्रशस्ति में तिथि का उल्लेख (चित्र २७३) है जो विक्रम संवत् १५०६ (सन् १४५२) है। क्योंकि तिथि का उल्लेख प्रशस्ति के मध्य है, इसलिए इसके विषय में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। इस प्रकार उमाकांत प्रेमानंद शाह द्वारा प्रकाशित सन् १३४६ की तिथि वाली पाण्डुलिपि वस्तुत: पंद्रहवी शताब्दी के मध्य की है जिसे महावीर-भण्डार में सन् १४४८ में जमा किया गया है। इसके निर्माण के लिए सुझाया गया सन् १४४८ ही अधिक उपयुक्त बैठता है। उपर्युक्त दोनों पाण्डुलिपियाँ समय की दृष्टि से भी स्पष्टतः एक-दूसरे के अत्यंत निकट हैं। संयोगवश राष्ट्रीय संग्रहालय की पाण्डुलिपि का पृष्ठ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि की अपेक्षा कम माप का है तथा उसपर छह पंक्तियाँ ही लिखी हुई हैं, फिर भी ये विशेषताएँ किसी प्रकार इस पक्ष में निर्णायक तथ्य प्रस्तुत नहीं करतीं कि पाण्डुलिपियाँ यथेष्ट पूर्व काल की, अर्थात चौदहवीं शताब्दी के मध्य या उसके उत्तरार्ध काल की हैं। कालकाचार्य-कथा की एक अन्य उल्लेखनीय पाण्डुलिपि बंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम में है जिसपर सन् १३६६ का उल्लेख है। यह पाण्डुलिपि योगिनीपुरा, दिल्ली में निर्मित हुई है। इसमें मात्र तीन चित्र हैं जिनमें एक देवता को बैठे हुए सम्मुख-मुद्रा में अंकित किया गया है। चित्रों की 1 मोतीचंद्र एवं उमकांत प्रेमानंद शाह. 'न्यू डोक्यूमेण्ट्स ऑफ़ जैन पेंटिंग्स', श्री महावीर जैन विद्यालय गोल्डेन जुबली बॉल्यूम. 1968. बंबई, पृ 375. रंगीन चित्र 1. तथा रेखाचित्र 1-3. मोतीचंद्र इससे सहमत नहीं हैं, वे इसे 15वीं शताब्दो की मानते हैं जो उचित भी है. 2 गोरक्षकर (एस वी). 'ए डेटेड मैन्युस्क्रिप्ट प्रॉफ दि कालकाचार्य-कथा इन दि प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम', बुलेटिन मॉफ द प्रिस मॉफ वेल्स म्यूजियम 9.4 56-57. रेखाचित्र 69-71. 414 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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