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अध्याय 31 ]
लघुचित्र
उदाहरण हैं । इन चित्रों के निरीक्षण से यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि चित्रकारों में इस बात की समझ बढ़ने लगी थी कि लघुचित्रों के उत्तम अंकन के लिए कुशल रेखांकन तथा तूलिका पर निपुणतापूर्ण अधिकार अपेक्षित तभी लघुचित्र पूर्णरूपेण प्रभावशाली बन सकते हैं । इसी काल की अथवा इससे कुछ समय उपरांत रची गयी सुप्रसिद्ध कल्प- सूत्र की ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि के चौंतीस लघुचित्रों में रंगों के प्रभाव को उभारने के लिए स्वर्ण का उपयोग हुआ है । कल्प-सूत्र को यह पाण्डुलिपि ईडर स्थित आनंदजी - मंगलजी-नी पेढी-ना ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है ।1 चित्रों में स्वर्ण के उपयोग की प्रेरणा संभवतः फारसी पाण्डुलिपियों के चित्रों से ली गयी है । गुजरात इस समय दिल्ली सलतनत के मुसलमान सूबेदारों के शासनाधीन था और इन मुसलमान शासकों द्वारा हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा था। जैन पाण्डुलिपियों के चित्रकारों को संभवतः सचित्र फारसी पाण्डुलिपियों को देखने के अवसर मिले होंगे । बड़ौदा संग्रहालय में भी ताड़पत्रीय कुछ ऐसे चित्र हैं जिनमें स्वर्ण का उपयोग हुआ है । ईडर स्थित कल्प- सूत्र की पाण्डुलिपि के रचनाकाल के विषय में कुछ मतभेद हैं परंतु शैली के आधार पर इसका काल लगभग सन् १३७० अथवा इससे कुछ उपरांत का निर्धारित किया जा सकता है ।
प्रतीत होता है कि तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी में सचित्र ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की रचना बहुत बड़ी संख्या में हुई अतः इस बड़ी संख्या को ध्यान में रखते हुए यदि विचार किया जाये तो किसी काल-विशेष के पाण्डुलिपि - चित्रों में कलात्मक गुणों की एकरूपता का पाया जाना सदैव संभव नहीं, क्योंकि इनके चित्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं और वे अपने कला कौशल में वैभिन्य रखते हैं । अतः इस तथ्य को हमें किसी काल की निर्मित श्रेष्ठ कृतियों से इतर कला-कृतियों मूल्यांकन में सदैव ध्यान में रखना चाहिए ।
कागज काल
यद्यपि गुजरात में जैन पाण्डुलिपियों के लेखन के लिए कागज का उपयोग बारहवीं शताब्दी में होने लगा था, परंतु प्राप्त प्रमाणों के अनुसार कागज का उपयोग पाण्डुलिपि चित्रों के लिए चौदहवीं शताब्दी से पूर्व नहीं हुआ । इसका क्या कारण रहा होगा -- यह स्पष्ट नहीं है । संभवतः कागज के अभाव के कारण ऐसा रहा हो । कुछ भी हो, तथ्य यह है कि बारहवीं और तेरहवीं तथा चौदहवीं शताब्दी के मध्य तक ताड़पत्रों पर पाण्डुलिपि-लेखन की परंपरा प्रचलित रही । यदि हम परंपरागत सुपरिचित विवरणों को मान्यता प्रदान करें तो यह परंपरा व्यापक स्तर पर प्रचलित रही । और इन परंपरागत विवरणों के अनुसार गुजरात के चौलुक्य शासकों, सिद्धराज जयसिंह (सन् १०६४-११४४) एवं कुमारपाल (सन् १९४४ -७२ ) तथा तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के बघेल शासकों के वस्तुपाल और तेजपाल जैसे प्रसिद्ध धनाढ्य मंत्रियों तथा परमार शासक जयसिंह के मंत्री पेथड - शाह के काल में बहुल संख्या में पाण्डुलिपियों की रचना हुई ।
1 वही, रेखाचित्र 59 से 78.
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