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________________ या 31 ] भित्ति-चित्र से ज्ञात होता है कि इस समय तक जैन ताड़पत्रीय चित्रों की शैली कुछ अपनी अतिशय रीतिबद्धताओं के साथ पूर्णरूपेण विकास पा चुकी थी, जो अगली कई शताब्दियों तक प्रचलित रही । इन प्रारंभिक ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों में चित्रों की संख्या सामान्यतः अल्प ही है लेकिन इस तरह का कोई एक समान नियम नहीं था । विशेषकर तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के पश्चात् की रची गयी पाण्डुलिपियों में ऐसा नहीं है । बड़ौदा के निकट छाणी स्थित जैन भण्डार की प्रोघ - नियुक्ति की ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि में विद्यादेवियों ! के चित्र एक बड़ी संख्या में विद्यमान हैं । इन विद्यादेवियों के चित्रों की कलात्मकता उत्तम है परंतु देवियों के चित्रों के बार-बार दोहराकर अंकित किये जाने से इनमें समरसता आ गयी है, वैविध्य नहीं रह गया है । विद्यादेवियों के ये चित्र स्पष्टतः पूर्वोक्त अंबिका के चित्र की शैली में ही अंकित हैं । अंबिका का यह चित्र सन् १२४१ की निर्मिति है, इसका उल्लेख ऊपर किया गया है । विद्यादेवियों के ये चित्र तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्धं से संबंधित हैं यद्यपि इन्हें कुछ लेखकों द्वारा भ्रमवश सन् १९६१ का माना गया है । सावग-पाडिक्कमण-सुत्त - चुण्णि शीर्षक ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि बोस्टन स्थित म्यूजियम श्रॉफ फाइन आर्टस के संग्रह में है जो सन् १२६० में उदयपुर के निकट मेवाड़ में रची गयी । इसमें छह चित्र हैं जिसमें से कुछ बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके हैं । ये चित्र शैलीगत ग्राधार पर उन पाण्डुलिपियों के चित्रों से भिन्न नहीं हैं जो गुजरात में रचे गये । इससे यह स्पष्ट है कि गुजराती अर्थात् पश्चिम भारतीय शैली दक्षिण राजस्थान में भी प्रचलित रही थी । तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इन ताड़पत्रीय चित्रों में एक और अन्य विशेषता का विकास हुआ है। चित्रकारों ने ताड़पत्र के सीमित क्षेत्रफल के होते हुए भी ताड़पत्र के मूलपाठ की विषयवस्तु के अनुरूप चित्रों को विवरणात्मक स्वरूप में अधिक से अधिक भावाभिव्यक्ति प्रदान करने की दिशा में चरण आगे बढ़ाया तथा चित्रांकन में उस सीमा तक स्वतंत्रता का उपयोग किया जिस सीमा तक उनके पूर्ववर्ती चित्रकार कभी नहीं गये थे । अबतक एक ही देवी - देवता के चित्र होते जो कभी अपने सेवकों के साथ अंकित किये जाते थे तो कभी अकेले ही, उनके स्थान पर अब कहीं-कहीं तीर्थंकरों के जीवन-चरितों के दृश्य चित्रांकित किये जाने लगे । इस प्रकार की दो उल्लेखनीय पाण्डुलिपियाँ हमारे सामने हैं जिनमें से पहली है--सुबाहुकथा तथा अन्य कथाओं की पाण्डुलिपि जो सन् १२८८ २ की रची हुई है तथा दूसरी पाटन स्थित संघवी भण्डार के संग्रह में उपलब्ध है । इसमें नेमिनाथ के जीवन की घटनाओं का चित्रांकन हैं । ये चित्र संख्या में २३ हैं । इन चित्रों में चट्टानों, वृक्षों और अन्य पशुओं की आकृतियों के उपयोग से दृश्य चित्रों की सर्जना की गयी है, जबकि विभिन्न भागों की घटनाएँ एक क्रमबद्ध विवरणात्मक विधि से अंकित की गयी हैं । इससे सभी विभिन्न घटनाएँ मिलकर 1 पूर्वोक्त, चित्र 39 से 42 ( रंगीन ) . 2 पूर्वोक्त, चित्र 50 से 53. Jain Education International 411 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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