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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 7 अंकन है । यह पाण्डुलिपि किसी आनंद नामक व्यापारी के पुत्र ने निर्मित कर मुनि चंद्र-सूरि के शिष्य यशोदेव-सूरि (१०१३-११२३) को भेंट की थी। आगमिक ग्रंथों की पाण्डुलिपियों की प्रतियाँ तैयार कराकर जैन प्राचार्यों में वितरित करने की प्रथा का सामान्य प्रचलन था। जैन आचार्य इस प्रकार शास्त्रदान में आयी हुई पाण्डुलिपियों को सामान्यतः अपने भण्डारों में सुरक्षित रखते थे। प्रति संपन्न महाजन (श्रेष्ठि) और व्यापारी गण जैन मंदिरों को इस प्रकार की पाण्डुलिपियाँ दान में देते थे तथा जन सामान्य में भी वितरित करते थे । ये दोनों प्रकार के दान समान रूप से दानादाता के लिए पुण्य का कार्य होता था। इस प्रकार का आस्तिक्य भाव अभिरोचक समाजवादी स्वरूप को आगे लाता जो जैन धर्म में विद्यमान था। शास्त्र के दानदाता चाहे इन शास्त्रों को धार्मिक प्रेरणा से विनम्र भाव से दान देते अथवा किसी पाप के प्रायश्चित्त स्वरूप देते; लेकिन ये दोनों प्रकार के दान समान रूप से उनके लिए पुण्य का अर्जन करते थे। इस पाण्डुलिपि के लेखक का नाम सोमपाल लिखा गया है। यदि यह पाण्डुलिपि यशोदेव-सूरि के अंतिम वर्ष से संबंधित है तो यह सन् ११२३ के बाद की नहीं हो सकती। इसके पृष्ठ-भाग पर एक रूपाकार है जिसमें दो कमल-पुष्पों के बीच दो वृत्त अंकित हैं जिनमें से एक वृत्त कमलदलों से निर्मित है और दूसरा हंसों के घेरे से । बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में चित्रित पटलियों में हंसों का पालंकारिक अभिप्रायों के रूप में जो उपयोग पाया जाता है वही उपयोग इसी काल के लगभग रचे गये सभी ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के चित्रों में पाया गया है। यह पाण्डुलिपि इस समय क्षतिग्रस्त अवस्था में है। किसी समय यह मुनि जिनविजयजी के संग्रह में थी। खंभात स्थित शांतिनाथ-मंदिर के भण्डार में ज्ञान-सूत्र की एक पाण्डुलिपि है जिसमें मात्र दो चित्र हैं। यह पाण्डुलिपि सन् ११२७ की प्रारंभिक प्रति होने के कारण उल्लेखनीय है। इसके एक चित्र में खड़ी मुद्रा में सरस्वती की आकर्षक आकृति अंकित है। इन चित्रों में आँखों के विस्तृत रूप से अंकित करने की प्रवृत्ति जिनदत्त-सूरि की समकालीन पटलियों के अंतर्गत भी नहीं पायी जाती। स्मरण रहे कि जिनदत्त-सूरि की पटलियों में नारी-प्राकृतियों का अंकन अजंता की प्रचलित कला-परंपरा में हुआ है जो आगे चलकर समाप्त-प्राय हो गयी। सरस्वती का यह चित्र (चित्र २७० ग) उस लाक्षणिक जैन शैली का पूर्व रूप है जिसने आगे चलकर परवर्ती पाण्डुलिपि-चित्रों में प्रमुख स्थान प्राप्त किया। इस पाण्डुलिपि के बाद दश-वैकालिक-लघुवृति नामक पाण्डुलिपि का स्थान आता है। यह पाण्डुलिपि सन् ११४३ की रची हुई है तथा पूर्वोक्त भण्डार में ही है। इसमें मात्र एक ही चित्र है जिसमें दो जैन साधु एवं एक श्रावक का चित्र अंकित है। यह पाण्डुलिपि केवल प्राक्कालीन महत्त्व की है । इसी भण्डार में नेमिनाथ-चरित नामक एक पाण्डुलिपि है जो सन् १२४१ की लिपिबद्ध है। इसमें चार चित्र हैं जिनमें से एक आकर्षक चित्र पदमासीन अंबिका का है। इन चित्रों 1 पूर्वोक्त, चित्र 16 (रंगीन). 2 पूर्वोक्त, चित्र 46 (रंगीन). 410 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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