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अध्याय 31]
भित्ति-चित्र जो महान श्वेतांबर तर्क-विद् वादिदेव-सूरि और सुप्रसिद्ध दिगंबर प्राचार्य कुमुदचंद्र के मध्य सन् ११२४ में सिद्धराज जयसिंह की राज्य-सभा में हुआ था, जिसमें वादिदेव-सूरि ने अभिमानी कुमुदचंद्र को परास्त किया था। इसमें किंचित संदेह नहीं कि इस पटली के चित्रण का मूल उद्देश्य समसामयिक घटना को चित्रित करना रहा है। यह पटली इस शास्त्रार्थ से अधिक से अधिक एक वर्ष की अवधि में चित्रित की गयी है । यह शास्त्रार्थ भी छह मास तक चला था। इस शास्त्रार्थ की कथा मात्र श्वेतांबर जैनों के पागमाश्रित साहित्य में लिपिबद्ध ही नहीं हैं अपितु यशश्चंद्र के नाटक मुद्रित-कुमुदचंद्र की कथावस्तु भी है। यशश्चंद्र गुजरात के शासक सिद्धराज जयसिंह (सन् १०९४-११४४) के शासनकाल का एक नाटककार था और वह स्वयं इस अवसर पर उपस्थित था । उसने यह नाटक इस शास्त्रार्थ के अवसर पर ही लिखा था। इस सब के अनुसार इस पटली की रचना लगभग सन् ११२५ में होनी चाहिए। इस पटली की सुदक्ष कलाकारिता राजस्थान में चित्रित जिनदत्त-सूरि के पटली-समूह की श्रेष्ठतम पटलियों की कलाकारिता के समकक्ष है। यह पटली संभवतः गुजरात की राजधानी पाटन के किसी चित्रकार की कलाकृति है जहाँ पर यह शास्त्रार्थ हआ था। पाटन में पाण्डुलिपियों की रचना-कला को बहुत बड़ा संरक्षण प्राप्त था। इस घटना को श्वेतांबर जैन संप्रदाय में एक लंबे समय तक स्मरणीय बनाये रखने की दृष्टि से निस्संदेह ही विजयी वादिदेव-सूरि के किसी प्रशंसकअनुयायी ने उन्हें कुछ आगमिक पाठों की पाण्डुलिपियों के साथ भेंट करने के लिए यह पटली बनवायी होगी। इस पटली और जिनदत्त-सूरि-पटली-समूह में शैलीगत भिन्नता इन तथ्यों से भली-भांति परिगणित की जा सकती है कि ये विभिन्न क्षेत्रों में चित्रित की गयीं, फलतः इनके चित्रण के लिए विभिन्न व्यावसायिक समूहों के चित्रकार नियुक्त किये गये। इस पटली में चित्रित महावीर की प्रतिमा को ले जाने वाले उत्सव के रथ के साथ शोभा-यात्रा के दृश्य में नर्तकों और गायकों-वादकों को सजीव एवं आकर्षक रूपाकारों में अंकित किया गया है। ये चित्र बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में पाटन में पटलियों के निर्माण की उच्च तकनीकी दक्षता का संकेत देते हैं।
इनके अतिरिक्त अन्य अनेक पटलियाँ भी हमें उपलब्ध हैं जो मुख्यतः बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा तेरहवीं एवं चौदहवीं शताब्दी में रची गयी हैं लेकिन उनमें परंपरागत विशेषताओं एवं प्रौपचारिकता की बढ़ती हुई प्रवृत्ति पायी जाती है, जिसके फलस्वरूप इनके अलंकरणों, लहरदार लताओं में अंकित पशु-पक्षी और कमल-पुष्पों के अंकन में कलात्मक आनंद का प्रभाव पाया जाता है, तथा इनमें जिनदत्त-सरि के पटली-समूह-सा गंभीर आकर्षण अथवा देव-रि-कूमदचंद्र-शास्त्रार्थ वाली पटली की-सी चमक और उज्ज्वलता नहीं पायी जाती।
ताड़पत्र-काल
ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के चित्रों के विषय में, जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं, सबसे प्रारंभिक और ज्ञातव्य पाण्डुलिपि-चित्र (चित्र २६५ क) सन् १०६० का रचा हुआ है। इसके उपरांत हमें पिण्ड-नियुक्ति का एक ताड़पत्र प्राप्त है जिसपर एक हाथी भली-भाँति अंकित है यद्यपि इसका रंग घिस चुका है (चित्र २७० ख) । इस ताड़पत्र के दोनों किनारों पर कमल-पदक का
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