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चित्रांकन एवं काष्ठ- शिल्प
[ भाग 7
एक बन गयी हैं । ये सभी घटनाएँ एक चित्र के फलक में ही अंकित हो गयी हैं । विभिन्न घटनाओं के चित्रण की यह विधि और दृश्य चित्रों के अंकित करने का ढंग ग्यारहवीं शताब्दी - पूर्व के प्रारंभिक जैन पट्टों ( कपड़े पर चित्रित) तथा जैन मंदिरों के भित्ति चित्रों के चित्रकारों को अवश्य ज्ञात रहा होगा; लेकिन पटलियों से भिन्न इस प्रकार के नवोन्मेष को ताड़पत्र के सीमित फलक पर चित्रित करने का प्रयास संभवतः नहीं किया गया । नितांत मूर्तिपरक चित्रांकन से दूर हटने की यह प्रवृत्ति इस बात का संकेत देती है कि चित्रकारों ने लघुचित्रों की संभावनाओं को तथा ताड़पत्र के अत्यंत सीमित क्षेत्रफल का संयोजनात्मक दृष्टि से उपयोग भी भली-भाँति समझ लिया था ।
दूसरी पाण्डुलिपि में, जो इसी वर्ग में प्राती है, रचना-तिथि का उल्लेख नहीं है, परंतु स्पष्टतः इसका काल भी वही निर्धारित किया जा सकता है जो पूर्वोक्त पाण्डुलिपि का । इसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और नेमिनाथ की जीवन-संबंधी घटनाएँ अंकित हैं। यह पाण्डुलिपि जैसलमेर के जैन भण्डार में है ( चित्र २७१ क, ख, ग, घ ) । इसमें बीस चित्र हैं । इन दोनों पाण्डुलिपियों के चित्र विशेष आकर्षक हैं तथा पूर्व उल्लिखित एक ही देवी के चित्र वाली प्रारंभिक पाण्डुलिपियों के चित्रों से कहीं अधिक प्रवाहमय हैं । चित्रकारों का दृष्टिकोण उन्हें अधिक से अधिक अलंकृत करने का रहा है । तीर्थंकर की जीवन संबंधी घटनाओं को अंकित करने के लिए अपनायी गयी कुछ मान्यताओं को भी इन चित्रों में विकसित होते हुए देखा जा सकता है । इन मान्यताओं को संभवतः इन्हीं के समान उन मान्यताओं से ग्रहण किया गया है जिन्होंने ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व जैन पट्टों एवं मंदिरों के भित्ति चित्रों में विकास पाया था । यद्यपि गुजरात में पाण्डुलिपि के लेखन के लिए कागज का उपयोग बहुत पहले अर्थात् बारहवीं शताब्दी से होने लगा था किन्तु पाण्डुलिपीय चित्रों को चित्रित करने के लिए कागज का उपयोग लगभग चौदहवीं शताब्दी के मध्य तक नहीं हो बल्कि इसका उपयोग सन् १४०० के लगभग किसी प्रकार ताड़पत्र के स्थान पर किया गया । इस प्रकार हम देखते हैं कि ताड़पत्रों पर पाण्डुलिपि चित्रों की रचना चौदहवीं शताब्दी, और यहाँ तक कि पंद्रहवीं शताब्दी तक प्रचलित रही । इस उत्तरवर्ती काल की रची पाण्डुलिपियों में कल्पसूत्र तथा कालकाचार्य - कथा उल्लेखनीय हैं । इन दोनों पाण्डुलिपियों पर इनका रचनाकाल अंकित है । ये पाण्डुलिपियाँ अहमदाबाद स्थित उज्जम्फोइ धर्मशाला के भण्डार में है । इनकी रचना सन् १३७० में हुई थी (चित्र २७२ क, ख ) । इसमें मात्र छह चित्र हैं। चित्रों की इस अल्पता की दृष्टि से इसमें सचित्र पाण्डुलिपियों की उस प्राचीन परंपरा का अनुसरण किया गया है जिनमें कुछ ही चित्र हुआ करते थे । ये चित्र यद्यपि गतिहीन और औपचारिक है परंतु सुदक्ष कलाकारिता के
सका;
1 नवाब ( माराभाई) पूर्वोक्त, चित्र जे से एस तक ( रंगीन ).
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ग्रहमदाबाद के एल. डी. इस्टीट्यूट में सन् 1294 की कागज पर लिखी गयी पाण्डुलिपि 'शांतिनाथ बोलि' का एक पृष्ठ सुरक्षित है। एक दूसरी बारहवीं शताब्दी की कागज पर चित्रित पाण्डुलिपि मुनि जिनविजयजी के
पास थी.
मोतीचंद्र पूर्वोक्त, चित्र 54 से 58 तक.
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