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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 7 संवत् १११७ (१०६० ई०)। इस पाण्डुलिपि में अंतिम चित्रों में श्री का एक चित्र, कामदेव द्वारा वाण छोड़े जाने का एक सजीव चित्र तथा हाथियों के सुदक्षतापूर्ण अंकित कुछ चित्र हैं (चित्र २६५ क)। इस पाण्डुलिपि के चित्रों के अत्युत्तम स्तर के रेखांकन को देखकर हमें इसलिए पाश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि, हम इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि वस्त्रों पर कुशल चित्रकारों द्वारा पट्टों के चित्रांकन की परंपरा ग्यारहवीं शताब्दी के बहत पूर्व से प्रचलित रही है। यद्यपि कपड़े पर बड़े आकार के चित्र बनाने में अभ्यस्त पट-चित्रकारों को प्रारंभ में ताड़ के छोटे से पत्र के अत्यंत सीमित स्थान पर चित्रांकन करने में कुछ असुविधा रही होगी। परंतु सचित्र पाण्डुलिपियों के संबंध में एक प्रश्न सर्वप्रथम विचारणीय है कि जैन ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों पर, जिनमें ताड़पत्रों का क्षेत्रफल अत्यंत सीमित है, चित्रांकन मात्र ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही किस प्रकार प्रारंभ हुआ। इसमें संदेह नहीं कि अनेक जैन ग्रंथ ग्यारहवीं शताब्दी से पहले भी ताड़पत्रों पर लिखे गये हैं, भले ही उनकी प्रतियाँ अब उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु उपलब्ध प्रमाण यह संकेत देता है कि प्रारंभिक ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के--जिनमें सबसे प्राचीन सन् १०६० की रची जैसलमेर की अोघ-नियुक्ति की पाण्डुलिपि का हम पहले उल्लेख कर चुके हैं-- उत्तरवर्ती विकास के फलस्वरूप ही ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के चित्रण की परंपरा प्रकाश में आयी है। इस विषय में बिना किसी पूर्वाग्रह के कुछ संभावनाएँ व्यक्त की जा सकती हैं। जिनमें से एक संभावना यह है कि दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पूर्व ही यहाँ पर धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों की सचित्र पाण्डलिपियों की एक सामान्य परंपरा प्रचलित थी। ये प्रारंभिकतम पाण्डलिपियाँ बौद्ध और जैन धर्म से संबंधित सचित्र पाण्डुलिपियाँ हैं जो आज भी सुरक्षित हैं। इन दोनों धर्मों की सचित्र पाण्डुलिपियों की परंपरा एक सामान्य स्रोत से उद्भावित है; अत: इन दोनों धर्मों में से किसी ने एक दूसरे से अनुप्रेरणा प्राप्त नहीं की है। परंतु इन दोनों के सामान्य स्रोत के विषय में हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। अबतक ज्ञातव्य सबसे प्राचीन सचित्र पाण्डुलिपि बौद्ध धर्म से संबंधित है। इस पाण्डुलिपि की रचना पालवंशीय शासक महीपाल के राज्यकाल के छठवें वर्ष में हुई थी। यदि यह शासक महीपाल-प्रथम है तो, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इस पाण्डुलिपि का रचनाकाल लगभग सन् ६६२ है । इस पाण्डुलिपि के चित्रण की शैली दीर्घकाल से चली आ रही अजंता की उच्चस्तरीय चित्रण-परंपरा से ली गयी है। परंतु इसकी रचना में कहीं अधिक स्थिरता और प्रस्तुतीकरण में प्रौपचारिकता है। इस पाण्डुलिपि को महान् बौद्ध विश्वविद्यालय नालंदा में लिपिबद्ध किया गया है। यह भी हो सकता है कि ताड़पत्र के सीमित क्षेत्रफल के कारण, जिसपर पाठ भी लिखा जाता था, दसवीं शताब्दी से पूर्व पाण्डुलिपियों के चित्रण की परंपरा का विकास न हो पाया हो। फिर भी, ऐसा प्रतीत होता है कि दसवीं शताब्दी में बौद्ध प्रतिमाओं के रेखांकन और ध्वजाओं पर धार्मिक विषयों के चित्रांकन के अभ्यासी कुछ बौद्ध भिक्षों ने धार्मिक पाण्डलिपियों को चित्रित करने की आवश्यकता 1 यह पाण्डुलिपि जैसलमेर के एक जैन भण्डार में है. इसका सर्वप्रथम उल्लेख डॉ. सत्यप्रकाश ने हिंदी पत्रिका 'प्राकृति' में किया था; तदपश्चात् डॉ. उमाकांत प्रेमानंद शाह ने किया, पूर्वोक्त. 402 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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