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अध्याय 31]
भित्ति-चित्र
अनुभव की और उन्होंने ताड़पत्र के सीमित क्षेत्रफल के उपरांत भी उनपर लघुचित्रों की रचना की। इस प्रकार उन्होंने कला की एक नयी विधा का श्रीगणेश किया। यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें इन चित्रों की रचना के लिए किन कारणों ने उत्प्रेरित किया परंतु यह देखा जा सकता है कि पाँचवी शताब्दी के प्रारंभिक काल में भी चित्रांकन की परंपरा विद्यमान थी। पाँचवीं शताब्दी के
आरंभिक वर्षों में चीनी यात्री फाह्यान ने चीन लौटने से पूर्व दो वर्ष तक ताम्रलिप्ति के तट पर स्थित एक बौद्ध मठ में रहकर सूत्रग्रंथों की प्रतिलिपि ही नहीं की बल्कि बौद्ध प्रतिमाओं का रेखांकन भी किया । बौद्ध प्रतिमाओं के ये रेखांकन निस्संदेह पूजा-पाठ के लिए किये जाते थे और इनका स्थायी संग्रह सदैव यहाँ देखने के लिए उपलब्ध रहता था। यह भी संभव है कि जैन धर्म की पाण्डुलिपियों को चित्रित करने की प्रेरणा जैन आचार्यों ने बौद्ध धर्म की उन प्रारंभिक सचित्र ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों से ली हो जो पालवंशीय शासनकाल के अंतर्गत बंगाल में चित्रित हुई। बौद्ध धर्म की इन ताडपत्रीय सचित्र पाण्डुलिपियों में बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं तथा बुद्ध के जीवन संबंधी घटनाओं के चित्र अंकित हैं। यह ज्ञात नहीं है कि वे क्या कारण और परिस्थितियाँ थीं जिनमें जैन साधु बौद्धों की इन ताडपत्रीय सचित्र पाण्डुलिपियों की चित्रण-परंपरा के संपर्क में आये। ऐसे बहुत से कारण हो सकते हैं जिनमें यह संपर्क संभव हुआ हो। इन कारणों पर विचार किया जाना चाहिए । क्योंकि जैन समुदाय के लोग देश के विभिन्न भागों में रहते आये हैं अतः हो सकता है कि इसी देशव्यापी संपर्क के कारण ऐसा हुआ हो । दूसरे, जैन धर्म प्रचारक साधु गुजरात से देश के दूर-दूर प्रदेशों की निरंतर यात्राएँ करते रहे हैं। अतः हो सकता है इन सुदूर यात्राओं के कारण वे उनके संपर्क में आये हों। आगे यह भी अनुमान किया जा सकता है कि जैनों का धार्मिक अनुशासन बौद्धिक ज्ञान की उपलब्धियों के साथ हिन्दू और बौद्ध परंपरा की धार्मिक कला और साहित्य के विकास से असंपृक्त नहीं था क्योंकि इस तथ्य की संपुष्टि भण्डारों में पाये जाने वाले जैनेतर साहित्य की उपस्थिति से भी होती है। जैन धर्म की सबसे प्राचीन सन् १०६० की जैसलमेर-भण्डार की सचित्र पाण्डुलिपि बौद्ध धर्म की सबसे प्राचीन ताडपत्रीय सचित्र पाण्डुलिपि से मात्र पचहत्तर वर्ष बाद की है--यह एक संयोग मात्र है। भारतीय भित्ति-चित्रण-कला की कहानी इस तथ्य की ओर स्पष्टतः अंगुलि-निर्देश करती है कि इन तीनों महान् धर्मों की कलात्मक गतिविधियाँ अभिव्यक्ति की एक-समान दिशा का अनुसरण करती रही हैं। यह संभावना भी की जाती है कि पालवंशीय शासनकालीन प्रारंभिक बौद्ध सचित्र पाण्डुलिपियों ने जैनों को वैसी ही कला-प्रवृत्ति अपनाने की प्रेरणा प्रदान की हो। यह संभावना आधारहीन नहीं है।
पाण्डलिपियों के काष्ठ-निर्मित प्रावरण
जैसलमेर के प्रसिद्ध जैन भण्डार में दो सचित्र पटलियाँ (पाण्डुलिपियों के काष्ठ-निर्मित आवरण) उपलब्ध हैं जिनपर जैन मूर्ति-शास्त्र की विद्यादेवियों के चित्र अंकित हैं। इन विद्यादेवियों
1 फाह्यान द्वारा लिखित ए रिकॉर्ड प्रॉफ बुद्धिस्ट कण्ट्रीज का अनुवाद . अनु. चाइनीज़ बुद्धिस्ट एसोसियेशन,
1957, पीकिंग ; पृ 77.
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