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________________ अध्याय 31 ] भित्ति चित्र इस विषय में जैन लेखकों द्वारा किये गये कला-विषयक उल्लेख हमारे लिए विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । उद्योतन- सूरि द्वारा, जो वीरभद्र के शिष्य थे तथा आगे चलकर विद्वान् जैन साधु हरिभद्र - सूरि के शिष्य बने, राजस्थान में जालोर नामक स्थान पर सन् ७७८ ७७६ में प्राकृत भाषा में रचित कुवलयमाला - कहा नामक ग्रंथ में जिस संसार-चक्र-पट का उल्लेख किया गया है वह स्पष्टतः पट-कपड़े के चित्र- फलक पर अंकित चित्र का साक्ष्य है । इस पट में स्वर्ग के सुखों के विपरीत मानव-जीवन के दुखों एवं निरर्थकताओं का अंकन है । इस पट का चित्रांकन प्रशंसनीय माना गया है । इसी प्रकार जिनसेनप्रथम ( लगभग ८३० ई०) ने अपने ग्रंथ आदि-पुराण में एक जैन चैत्यवास स्थित पट्टशाला का उल्लेख किया है । जटासिंहनंदी ( लगभग सातवीं शताब्दी) ने अपने ग्रंथ वरांग-चरित में एक जैन मंदिर के भीतर पट्टकों के प्रदर्शित किये जाने का उल्लेख किया है। इन पट्टकों पर तीर्थंकरों, प्रसिद्ध जैनसाधुनों और चक्रवर्तियों (महान् राजानों) के जीवन चरित्रों का चित्रांकन है । यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त अंतिम दोनों उल्लेख दक्षिण भारत के जैन मंदिरों से संबद्ध हैं जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पट्टकों के चित्रण की परंपरा जैनों में व्यापक रूप से प्रचलित थी । यद्यपि पट्टक शब्द का अर्थ लकड़ी का तख्ता हो सकता है और कपड़े पर तैयार किया चित्र - फलक भी, लेकिन इससे कपड़े के तैयार किये चित्र फलक का अर्थ लेना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । इन प्रारंभिक पटों को बाद अनेकानेक जैन कपड़े के पटों का उद्भावक मानना चाहिए । 2 बाद के अनेकानेक जैन पटों के विषय में जैन कला के विद्वान् भली-भाँति परिचित हैं । उपरोक्त उल्लिखित प्रारंभिक पट-चित्रों तथा बाद के इन पट- चित्रों के संदर्भों से हमें यह संकेत मिलता है कि कपड़ों के पटों पर इस प्रकार के चित्रों के निर्माण की एक लंबी, अविच्छिन्न और क्रमबद्ध परंपरा रही है । के पर बने परंतु यह भी उल्लेखनीय है कि यद्यपि समस्त प्रारंभिक उल्लेख मंदिरों की दीवारों और पटों चित्रों की ओर संकेत करते हैं, फिर भी जहाँ तक हमें ज्ञात है, वे पाण्डुलिपियों के चित्रण के अस्तित्व और ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व में उसके प्रचलन के बारे में विशेष रूप से मौन हैं। हुए श्वेतांबर पाण्डुलिपियाँ पाण्डुलिपियों के चित्रांकन का प्रारंभ प्राचीनतम चित्रांकित जैन पाण्डुलिपि में ताड़पत्र पर प्रोघ निर्युक्ति तथा दश - वैकालिक - टीका नामक दो ग्रंथ लिखे गये हैं । इन दोनों की प्रशस्तियों में एक ही दाता, एक ही पात्र -साधु और एक ही लिपिकार का उल्लेख है । प्रोघ नियुक्ति की प्रशस्ति में तिथि का भी उल्लेख है । यह तिथि है विक्रम 1 ( शाह उमाकांत प्रेमानंद) का ऑल इण्डिया ओरियण्टल कांफ्रेंस के फाइन ग्रास सेक्शन 24वाँ अधिवेशन, वाराणसी, अक्तूबर 1968 में दिया गया अध्यक्षीय भाषण. 2 मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, पृ 46. Jain Education International 401 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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