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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 7 की लिपिबद्ध हो। जैनों द्वारा गंभीरतापूर्वक प्रस्तावित धार्मिक पाठ के लिपिबद्ध करने के प्रयास तथा जो लिखित धार्मिक साहित्य सामने आया-इन दोनों के बीच के अंतर का क्या कारण है, इसपर विचार करने पर दो संभावनाएँ सामने आती हैं। पहली यह कि, अपने इस उद्देश्य के प्रति निष्ठा रखते हुए भी जैन उसे उस उत्साह के साथ कार्यान्वित नहीं कर सके जिस उत्साह से उन्होंने ऐसा करने का निर्णय लिया था। दूसरी संभावना यह कि, संभवतः प्रारंभिक पाण्डुलिपियां नष्ट हो गयी हों, क्योंकि उस समय ग्रंथ-भण्डार (जैन चैत्यवासों के पुस्तकालय) नहीं थे, जहाँ वे उचित देखभाल होने के कारण सुरक्षित रह पातीं। पाण्डुलिपियों के संग्रहालय के रूप में ग्रंथ-भण्डारों की संस्थागत स्थापना जैन समुदाय के धर्म-प्रमुख के रूप में भट्टारक-संस्था के अस्तित्व में आने के उपरांत हई । जैन धर्म के इतिहास में यह विकास आठवीं शताब्दी के मध्य किसी समय में हा प्रतीत होता है। विद्वान् और धर्म के लिए समर्पित भट्टारक गण ज्ञान की महत्ता के प्रति जागरूक थे अतः उन्होंने जैन मंदिर के लिए पाण्डुलिपियों के रूप में शास्त्रदान हेतु अपने अनुयायियों को प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप इस प्रकार के शास्त्रदानों को पर्याप्त धार्मिक महत्त्व प्राप्त हुआ। विगत पापों से मुक्ति पाने के लिए साधन रूप में अथवा ब्रत के सफलापूर्वक संपन्न होने के अवसर पर शास्त्रों का दान किया जाने लगा। धर्मात्मा जन जब-तब किसी विशेष ग्रंथ की अनेकानेक प्रतियाँ लिपिबद्ध कराते तथा उन्हें दूर-दूर के जैन ग्रंथ-भण्डारों में वितरित कराते। कभी-कभी पाण्डुलिपियाँ सचित्र भी होती। ___ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व पाण्डुलिपियों को चित्रित करने की परंपरा प्रचलित थी या नहींयह प्रश्न भारतीय लघुचित्रों के इतिहास की एक जटिल समस्या है। यह तो हमें भली-भाँति ज्ञात है कि पाण्डुलिपि-चित्रण के अतिरिक्त चित्रांकन की अन्य विधाएँ जैसे, दीवारों, लकड़ी के तख्तों और कपड़ों पर चित्रांकन की परंपरा अति प्रारंभिक काल से प्रचलित रही है। ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी जितना प्राचीन भित्ति-चित्रण का स्पष्ट साक्ष्य हमें सातवाहनकालीन अजंता की गुफा संख्या नौ और दस में प्राप्त है। इसके साथ ही साहित्यिक साक्ष्य हमें काष्ठ-फलकों, कपड़ों और यहाँ तक कि हड्डियों से निर्मित ढालों पर चित्र-चित्रण के विषय में भी जानकारी उपलब्ध कराते हैंजिनकी सत्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता । 1 जैन साहित्य में पाये इन उल्लेखों से विद्वान् परिचित हैं कि प्रारंभिक पाण्डुलिपियों में उपलब्ध लेखों में यह लिखा मिला है कि इन पाण्डुलिपियों की प्रतियाँ उन प्राचीन पाण्डुलिपियों से की गयी हैं जो कि उस समय नष्टः प्राय स्थिति में थीं. 2 विद्याधर जोहरापुरकर. भट्टारक संप्रदाय. 1958. शोलापुर की अंग्रेजी में लिखी भूमिका. 3 कस्तूरचंद कासलीवाल, पूर्वोक्त, पृ 4-7. 4 एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता में उपलब्ध सचित्र बौद्ध पाण्डुलिपि अष्टसहस्रिका-प्रज्ञापारमिता (पाण्डुलिपि जी-4713) में जिस पाल नरेश महीपाल का लेख प्राप्त है यदि वह महीपाल-प्रथम है तो यह पाण्डुलिपि उसके राज्य के छठवें वर्ष में रची गयी, जिसका समय लगभग सन् 992 होना चाहिए. अत: यह दसवीं शताब्दी के अंतिम काल की रचना है. इस ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि में बारह चित्र हैं. 5 शिलप्पदिकारम्, संपादन : रामचंद्र दीक्षितार 1939. मद्रास. पृ 206. सर्ग 13. पंक्ति 168-179. 400 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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