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________________ अध्याय 31 लघु चित्र (ताड़पत्र और कागज पर अंकित पट्ट) प्रामुख महावीर के निर्वाणोपरांत कुछ प्रारंभिक शताब्दियों में जैन आगमों का ज्ञान जैन साधनों की स्मृति में ही सुरक्षित रहा और परंपरा में गुरुओं द्वारा शिष्यों को मौलिक रूप से प्रदान किया जाता रहा । लेकिन दुर्भिक्षों और संक्रामक रोगों से जब भी ये आगमज्ञानी कालग्रस्त होते तब इन धार्मिक आगमों का ज्ञान भी उन्हीं के साथ अवश्य क्षीण होता जाता। कालांतर में जैन आत्मज्ञान की शिक्षाओं का प्रवाह इतना टूटने लगा कि उसे निरंतर बनाये रखना और उनके मूल-पाठ को भ्रष्ट होने से बचाये रखना असंभव हो गया । कालांतर में मौखिक रूप से ज्ञानांतरण की इस पद्धति से उत्पन्न संकट को जैन समुदाय ने चिता के साथ अनुभव किया और उसे लगा कि यदि इस दिशा में सुधारात्मक अपेक्षित कदम न उठाये गये तो पवित्र ज्ञान की समस्त धरोहर सदा के लिए विलुप्त हो जायेगी। फलतः जैन समुदाय ने अपनी पवित्र ज्ञान-निधि की सुरक्षा के लिए अनेक प्रकार के प्रयास किये । पाटिलीपुत्र में जैन साधनों की संगीति आयोजित की गयी जहाँ जैन सिद्धांत-साहित्य को क्रमबद्ध रूप से संचित कर लिपिबद्ध किया गया । आगे चलकर ईसा की पाँचवीं शताब्दी में श्वेतांबर जैन परंपरा के अनुसार गुजरात के बलभि में जैन साधुओं की एक संगीति हुई जिसने यह निर्णय किया कि समस्त धार्मिक मूल-पाठों को लिपिबद्ध किया जाये। इन संगीतियों के अतिरिक्त कुछ जैन साधुओं द्वारा व्यक्तिगत रूप में मौखिक ज्ञान की परंपरा को लिपिबद्ध करने का प्रयास भी किया गया । ईसवी सन् के प्रारंभिक वर्षों में दो दिगंबर जैन साधनों ने एक दूसरे से पृथक् और स्वतंत्र रूप में जैन धर्म के बिखरे हुए ज्ञान के विशद भण्डार को संग्रहीत कर लिपिबद्ध किया ।' लेकिन जैन साधनों द्वारा अपने इन समस्त पर्याप्त सचेष्ट प्रयासों के उपरांत भी आज तक जो प्रारंभिक जैन पाण्डुलिपियाँ ज्ञात हैं उनमें ऐसी कोई भी पाण्डुलिपि नहीं जो दसवीं शताब्दी से पूर्व 1 मोतीचंद्र. जैन मिनिएचर पेंटिंग्स फ्रॉम वेस्टर्न इण्डिया. 1949. अहमदाबाद. पृ2-3. 2 कासलीवाल (के). जैन ग्रंय भण्डार्स इन राजस्थान. 1967. जयपुर. पृ 2. 3 (जैन) हीरालाल कृत भूमिका-भाग. षट्खण्डागम. 1947. अमरावती. 399 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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