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________________ संग्रहालयों में कलाकृतियाँ [भाग 10 में दर्शाया गया है। उनका चेहरा अण्डाकार और कर्णाग्र लंबे तथा छिद्र-युक्त हैं; बाल छल्लों में प्रसाधित हैं तथा सिर के ऊपरी भाग पर उष्णीष है। श्रीवत्स-चिह्न का सकारण अभाव है। प्रतिमा के पीछे एक पैर तथा पादपीठ के पृष्ठ-भाग पर एक टूटा हुआ जोड़नेवाला भाग छत्र के लिए रहा होगा जो अब खण्डित हो चुका है। धड़-भाग का प्रतिरूपण और उसकी विशेषताएं तथा धोती बाँधने का ढंग इसकी संबद्धता गुप्त परंपरा से दर्शाता है। यह परंपरा दक्षिणापथ की गुफा-प्रतिमाओं में देखी जा सकती है । प्रतिमा का पृष्ठ भाग सपाट है । इस प्रतिमा का काल लगभग छठवीं शताब्दी है (चित्र ३५० ख)। तीर्थंकर प्रतिमा (३४; ऊँचाई १८ सें० मी०; कांस्य ; वाला): वर्गाकार पादपीठ पर कायोत्सर्ग तीर्थंकर मात्र धोती पहने हुए हैं जिसके सम्मुख भाग में पटलियाँ है और पीछे का भाग सपाट हैं। सिर-भाग धड़ की अपेक्षा प्रानुपातिक रूप में काफी बड़ा प्रतीत होता है। अण्डाकार भामण्डल एक सादे वृत्ताकार प्रभा-मण्डल को आधार प्रदान किये हुए है जो प्रतिमा के साथ ही ढला हुआ है यह प्रतिमा लगभग छठवीं शताब्दी की है। ऋषभनाथ का चतुर्विशति-पट्ट (४२; माप ३४४५८.५ सें. मी०, कांस्य, चाहरदी (चोपड़ा), जिला पूर्व खानदेश): त्रि-रथ पादपीठ पर आधारित दोहरे कमल पुष्प पर मूल-नायक कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं । मूल-नायक एक सादी धोती पहने हुए हैं जो उनकी कटि पर मेखला से छल्लेदार गाँठ से बँधी हुई है। उनके कंधे सपाट हैं लेकिन वे उभरे हुए हुए नितंबों और गोलाकार कमर की तुलना में चौड़े हैं। चेहरा चौड़ा है तथा मुखाकृति भली-भाँति प्रतिरूपित है। उनके बाल छल्लों में प्रसाधित हैं, ऊपर उष्णीष में आबद्ध है तथा केशों की लटें कंधों पर लहरा रही हैं जिनके आधार पर ही उन्हें ऋषभनाथ के रूप में पहचाना जाता है। उनकी आँखें चाँदी से और श्रीवत्स-चिह्न स्वर्ण-उरेकित है । उनके पादपीठ को दो सिंह आधार प्रदान किये हैं जिनके मुख दोनों विपरीत दिशाओं की ओर हैं, मध्य में चक्र है जिसके पार्श्व में दोनों प्रोर हिरण हैं। त्रि-तीर्थी के आधार पर नव-ग्रहों के ऊपर के शरीरार्ध अंकित हैं। उनका परिकर उल्लेखनीय है क्योंकि तीर्थंकर के दोनों ओर तीन बैठे हुए तीर्थंकर लंब रूप पंक्ति में व्यवस्थित हैं और शेष तीर्थंकर चार क्षैतिजिक पंक्तियों में। सबसे ऊपरी पंक्ति के मध्य में पार्श्वनाथ को एक देवकोष्ठ में बैठे हुए दर्शाया गया है। तीर्थंकर की लंब रूप पंक्ति के दोनों अोर चमरधारियों को त्रि-रथ पादपीठ से निस्सृत पत्र-पुष्पों के पादपीठ पर खड़े हुए दिखाया गया है। नीचे की सतह पर पादपीठ से निस्सृत पद्म-पुष्पों पर यक्ष-यक्षी बैठे हुए हैं । दायीं ओर के पद्म पर यक्ष ललितासन-मुद्रा में बैठा है जिसके सीधे हाथ में बीजपूरक तथा बायें हाथ में नकुल है । बायीं ओर के पद्म पर यक्षी बैठी है जो अपने दायें हाथ में आम्र-फलों का गुच्छा लिये तथा बायें हाथ से अपनी बायीं गोद में बैठे बच्चे को पकड़े हुए है। सिरों पर गज-व्याल हैं तथा परिकर के ऊपरी किनारे के साथ संगीतज्ञों की पंक्ति है। शीर्ष पर कर्नाटक शैली का तीन स्तर वाला छत्र है । पादपीठ के पृष्ठभाग पर एक अभिलेख अंकित है। यह प्रतिमा लगभग नौवीं शताब्दी की है और शैलीगत रूप में यह राष्ट्रकूट परंपरा से संबद्ध है (चित्र ३५१)। 586 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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