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________________ संग्रहालयों में कलाकृतियाँ [ भाग 10 तीन भुजाओं में कमल, गदा तथा पाश धारण किये हुए है और सामने का बायाँ हाथ वरदमुद्रा में है । यक्ष के पीछे एक विशद प्रभावली है जो कीर्तिमुख और पत्र - पुष्पों के पट्ट से अलंकृत है । यक्ष जिन उपादानों को अपने हाथों में लिये हुए है उनका उसकी विशेषताओं से कोई संबंध नहीं है, इसलिए यक्ष धरणेंद्र के रूप में उसकी पहचान के लिए वह तीन नाग फणी -छत्र सहायक है जो उसके मुकुट के ऊपरी भाग में अंकित है । इस प्रतिमा का अलंकरण लगभग बारहवीं शताब्दी की होयसल - कला के प्रभाव का परिचायक है (चित्र ३४८ ) । यक्षी पद्मावती (१२१; माप ४८४७८ से० मी० ; भूरा पत्थर, संभवत: कर्नाटक ) : यक्ष धरणेंद्र की सहधर्मिणी यह यक्षी पद्मावती भी चतुर्भुजी है जो अपनी भुजानों में वही उपादान धारण किये हुए है जो यक्ष धारण किये है। अपवाद मात्र इतना है कि यक्षी का बायाँ हाथ कमर के समीप खण्डित हो चुका है । उसके ऊपर एक फण वाले नाग का छत्र है । महावीर ( ११६; माप ४३ ११६ से० मी०, परतदार पाषाण, कर्नाटक ) : पादपीठ पर श्रधृत कमल पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े तीर्थंकर को महावीर के रूप में त्रि-रथ पादपीठ पर अंकित उनके लांछन सिंह के अंकन से पहचाना जा सकता है। तीर्थंकर के पार्श्व में एक श्रोर यक्ष है। जो अपने बायें हाथ में नीबू फल लिये हुए है और दूसरी ओर यक्षी है जो अपने बायें हाथ में पुस्तक लिये है । श्री वत्स चिह्न अंकित नहीं है । यह प्रतिमा दो स्तंभों के बीच स्थापत्यीय रूप से संयोजित है जिसके ऊपर मकर श्रधृत है। मकर के ऊपर एक देव श्राकृति श्रारूढ़ है जिसकी पहचान नहीं हो सकी । अण्डाकार प्रभा-पट्ट के प्रकार का है जिसके शीर्ष पर कीर्तिमुख है। कर्नाटक की प्रतिमाओं में पायी जाने वाली एक विशेषता तीर्थंकरों के ऊपर तिहरा छत्र है जो महावीर के ऊपर भी प्रदर्शित है ( चित्र ३४९ क ) । महावीर की एक तीथिका ( ११७; संगमरमर, माप ५१x१४३.५ सें०मी०, वीरवाह, थार और परकर जिला, सिंध) : इस प्रतिमा में महावीर पंचरथ पादपीठ पर कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हुए हैं । तीर्थंकर की टाँगों के बीच एक विशेष प्रकार के लहरदार अंकन से ज्ञात होता है कि वह उस धोती का छोर है जिसे वह पहने हुए हैं, साथ ही कमर पर कीर्तिमुख- कमरपेटी से कसी हुई एक चौड़ी पट्टी से भी यही प्रतीत होता है कि वह कोई अंतर-वस्त्र पहने हुए । उनके वक्ष पर श्री वत्स - चिह्न अंकित है और चूचुकों को बिंदु और उसके चारों ओर के एक घेरे द्वारा दर्शाया गया है (जो पुष्प का संकेत है ? ) । उनके पार्श्व में दोनों ओर चमरधारी सेवक खड़े हैं तथा इस मूर्ति का दानदाता - युगल अंजलि - मुद्रा में उनके चरणों के समीप बैठा है । उनका परिकर अलंकृत है जिसमें लंब-रूप स्तंभ के दोनों ओर चार बैठी हुई तथा एक खड़ी हुई विद्यादेवियाँ अंकित हैं । छत्र के चारों ओर प्रातिहार्य हैं और परिकर के ऊपरी सिरे पर संगीतज्ञ । इस पर संवत् ११३६ (सन् १०८० ) IT अभिलेख भी है (चित्र ३४९ ख ) । Jain Education International चमरधारी (११८; ऊँचाई ८७ सें० मी० संगमरमर, राजस्थान) स्पष्टत: यह प्रतिमा किसी 584 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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