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________________ अध्याय 37 ] विदेशों के संग्रहालय वैभवपूर्ण तो नहीं है तथापि, अपने अतिरिक्त गुण के कारण वह अन्य प्रतिमाओं से अधिक प्रसिद्ध है। इस प्रतिमा में एक पुरुषाकृति को सतह-युक्त पादपीठ पर रखे कमल पर सत्त्व-पर्यंकासन-मुद्रा में बैठे हुए दर्शाया गया है। पुरुष की प्रतिमा संपन्न रूप से रत्न-जटित है। इसकी दायीं भुजा तो खण्डित हो चुकी है परंतु बायें हाथ में एक बीज-पूरक है। एक बहु-फणी छत्र, जैसा पार्श्वनाथ की प्रतिमा में प्रदर्शित है, उसके शीर्ष-भाग के पीछे प्रभा-मण्डल की रचना कर रहा है। यह प्रतिमा एक चौखटे से आबद्ध है। चौखटे में दोनों ओर दो स्तंभ हैं और ऊपरी भाग शीर्ष-स्तंभों से प्राबद्ध है। इन शीर्षों से एक अलंकृत तोरण की रचना हुई है, जिसके ऊपरी सिरे पर एक उल्लेखनीय कीर्ति-मुख है। कुछ वर्ष पूर्व डगलस बैरेट ने एक बहुत ही संभाव्य सुझाव दिया था कि यह प्रतिमा पार्श्वनाथ के सेवक यक्ष धरणेंद्र की हो सकती है। जैन देव-शास्त्र के प्रसार की प्रक्रिया प्रायः वही रही है जो हिंदुओं और बैद्धों में है। प्रत्येक मुख्य देवता या प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक सेविका-यक्षी और कम से कम एक सेवक-यक्ष का विधान किया गया। लॉस एंजिल्स की पार्श्वनाथ-प्रतिमा (चित्र ३२६ ख) में हम तीर्थंकर की दो सेवक-यक्षियों को अंकित देख चुके हैं। सियाटल आर्ट म्यूजियम की इस कांस्य-प्रतिमा में नाग-फण-छत्र के अंकित होने से निश्चित ही इस प्रतिमा का संबंध पार्श्वनाथ से होना चाहिए क्योंकि नाग-फण-छत्र पार्श्वनाथ का एक विशेष चिह्न है। फिर यह भी हमें भलीभाँति ज्ञात है कि जैन यक्षों को इसी भाँति हाथ में बीज-पूरक लिये हुए अंकित किया जाता रहा है। जिससे स्पष्ट है कि यह प्रतिमा पार्श्वनाथ और उनके यक्ष की है। इस प्रतिमा के रचना-क्षेत्र के बारे में, जैसा कि बैरेट ने सुझाया है, दक्षिणापथ ही अधिक संभाव्य प्रतीत होता है। लेकिन अकोटा-क्षेत्र की संभावना को भी एकदम अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इस प्रतिमा की मुखाकृति अकोटा के जीवंतस्वामी की प्रतिमा की मुखाकृति से भिन्न नहीं है। फिर इन दोनों आकृतियों के मुकुट भी निश्चित रूप से एक ही प्रकार के हैं। यह बात अलग है कि जीवंतस्वामी की प्रतिमा कहीं अधिक विशद रूप से अलंकृत है । इस प्रतिमा का रचनाक्षेत्र कोई भी रहा हो किन्तु यह निश्चित है कि यह जैन सेवक-यक्ष की एक दुर्लभ प्रतिमा है । लॉस एंजिल्स म्यूजियम स्थित पार्श्वनाथ-प्रतिमा की त्रि-तीथिका (चित्र ३२६ ख) जैसी एक अन्य प्रतिमा (चित्र ३३२) पाल वाल्टर संग्रह में है। इसमें तीनों तीर्थंकरों को साथ-साथ खड़े हुए दर्शाया गया है। तीनों तीर्थंकरों के वक्ष पर पच्चीकारी से निर्मित श्रीवत्स-चिह्न हैं और ये पूर्णरूपेण दिगंबर हैं। प्रतिमाओं के स्तंभों जैसे रूपाकारों और मुद्राओं की कठोरता से 1 बैरेट (डगलस). 'ए ग्रुप प्रॉफ ब्रोंजेज फ्रॉम द डक्कन', ललित कला, 3-4, 1956-57. पृ 44-45. 2 शाह, पूर्वोक्त, चित्र 15, रेखाचित्र 40, चित्र 17, रेखाचित्र 47. 3 वेनिश (स्टेला). वि पार्ट प्रॉन इंडिया. 1965. लंदन. चित्र 56. [प्रथम भाग में चित्र 68 ख देखें-संपादक.] 569 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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