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________________ संग्रहालयों में कलाकृतियाँ [ भाग 10 पार्श्वनाथ की है जिसमें नाग-छत्र के अंकन के अतिरिक्त पूर्व वर्णित दक्षिण-भारत की तीर्थंकर-प्रतिमाओं से कोई दृष्टिगोचर मूर्तिपरक अंतर नहीं है। तीर्थंकर कमलाकार पादपीठ पर ध्यानावस्था में निमग्न बैठे हैं। पादपीठ के कमलाकार आसन का कमल-दल समान रूप से संलग्न है। तीर्थंकर के आस-पास अन्य प्रतिमाएं हैं। उनके पार्श्व में दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं। इस प्रकार यह प्रतिमा एक त्रि-तीथिका है। दोनों तीर्थंकर अलंकृत अग्नि-ज्वाल के प्रकाश-मण्डल के अंकन-युक्त चौखटे से आबद्ध हैं तथा दोनों तीर्थंकर कायोत्सर्ग-मद्रा में पथक-पथक पदम-पादपीठों पर स्थित हैं। इन दोनों में प्रत्येक तीर्थंकर के पार्श्व में दो ओर आकर्षक त्रिभंग-मुद्रा में अंकित देवी प्रतिमाएं हैं जो अपने अत्यंत कमनीय शरीर और तज्जन्य ऐंद्रियिक सौंदर्य को प्रदर्शित कर रही हैं। अधिक संभावना यह है कि ये प्रतिमाएं पद्मावती और सरस्वती की हैं। एक पाँचवी नारी-प्राकृति में एक देवी को शिशु सहित बैठे हुए दिखाया गया है। यह देवी यक्षी अंबिका है जो जैनों की सर्वाधिक लोकप्रिय देवी है । इनके अतिरिक्त नाग-छत्र के दोनों ओर दो उड़ते हुए विद्याधरों की आकृतियाँ हैं जो तीर्थंकर के लिए माला लेकर उनकी ओर आ रहे हैं। सिंहासन के पादपीठ पर दो सिंह तथा दो हरिणों सहित एक चक्र अंकित है। यह चक्र धर्म का प्रतीक है जो बौद्धों में भी लोकप्रिय रहा है। इससे भी अधिक उल्लेखनीय, पादपीठ के सम्मुख-भाग पर एक पंक्ति में नौ मानव-शीर्षों का अंकन है जो सिद्धचक्र के नव-देवताओं का प्रतीकांकन है। सिद्धचक्र जैनों का एक लोकप्रिय प्रतीक रहा है जो जैन धर्म पर पड़े तांत्रिक प्रभाव को सूचित करता है। सिद्धचक्र के संप्रदायगत विधान को जैन धर्म का उत्तरवर्ती विकास माना जाता है। यदि वस्तुतः ये शीर्ष सिद्धचक्र या नवदेवता के प्रतीक हैं तो इससे यह प्रमाणित होता है कि दसवीं शताब्दी जैसे प्रारंभिक समय में जैन धर्म में यह संप्रदायगत विधान न्यूनाधिक प्रचलन में आ चुका था। यह अत्यंत चमकदार मुलम्मे से युक्त कांस्य-प्रतिमा बनावट की सुघडता और सूक्ष्मांकन दोनों ही दृष्टियों से उल्लेखनीय है। इस प्रतिमा में मूर्तिकार ने जिस सफलता के साथ प्राकार-मूलक प्राकृतियों एवं आलंकारिक तत्त्वों का परस्पर तालबद्ध सुसंतुलित समायोजन किया है वह अद्भुत है। प्रत्येक प्रतिमा पृष्ठ-भूमि से असंपृक्त है इसलिए उसका सुगठित रूपाकार अपनी ही महत्ता रखता है । अलंकरण तथा उरेखन-कार्य उनकी बनावट की विभिन्नता और संपन्नता प्रदर्शित करता है, परंतु इसके उपरांत भी अलंकरण की यह तकनीक प्रतिमा के ऊपर अतिशय रूप से अभिभूत नहीं दिखाई देती। तीर्थंकरों की सादा एवं सरलीकृत प्राकृतियाँ अपने अलंकृत परिवेश के साथ एक उल्लेखनीय विरोधाभास प्रदर्शित करती हैं । वस्तुत: यह वैभवपूर्ण संयोजन तीर्थंकरों के उस विरक्ति-भाव को सुस्पष्ट रूप से दर्शाते हैं जो स्वर्ण दीप्ति से मण्डित तो हैं किन्तु उसकी चमक से वंचित हैं। सियाटल आर्ट म्यूजियम में एक सुरिपचित प्रतिमा (चित्र ३३१) है जो पूर्व-वर्णित प्रतिमाओं से कुछ प्रारंभिक काल की है। यह प्रतिमा यद्यपि लॉस एंजिल्स की पार्श्वनाथ प्रतिमा की भांति 1 शाह, पूर्वोक्त, 1.97-103. 568 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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