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________________ विदेशों के संग्रहालय श्रध्याय 37 ] लेकिन जहाँ तक तीर्थंकरों का प्रश्न है वे मानव-रूपाकारों से कहीं बहुत परे हैं । । जैसा कि afra ज़िम्मर ने कहा है, 'जैन तीर्थंकर सृष्टि के वितान अर्थात् अग्रभाग में निवास करते हैं । वह स्थान प्रार्थनाओं की पहुँच से परे है, अतः यह संभव नहीं है कि इतने उच्च तथा ज्योतिर्मय देदीयमान स्थल से उतरकर उनकी सहायता मानव के सकाम प्रयासों तक जा सके । भवसागर पर सेतु बनाने वाले अर्थात् तीर्थंकर सांसारिक घटनाओं तथा जीवन की समस्याओं से परे हैं । वे लोकगीत नित्य, सर्वज्ञ, अचल तथा अनंत शांति में निमग्न हैं । " इस प्रकार जैन तीर्थंकरों का अत्यंत सादा और सरल अंकन इस आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के विपरीत है | तीर्थंकर की प्रतिमाएँ चाहे पद्मासन मुद्रा में अंकित हों अथवा कायोत्सर्ग - मुद्रा में, वे ऐंद्रियिक प्राकर्षण से परे गणितीय यथार्थता में बुद्धिसंगत अंकन से निर्मित हैं । उनकी देह अनिवार्य रूप से प्रति मानवीय है जिसमें उनके विशाल स्कंध वृषभ की भाँति चौड़े हैं, धड़-भाग सिंह के समान, जिसमें उनका वक्ष विशेष रूप से चौड़ा है । ये विशेषताएं उनकी विपुल प्रांतरिक शक्ति का द्योतन करती हैं । कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े तीर्थंकर की प्रतिमा उनकी अचल दृढ़ता और अक्षय शक्ति का यथार्थतः मूर्तमंत स्वरूप है, जो लंबे और गरिमामय शाल वृक्ष ( शाल - प्रांशु ) से भिन्न नहीं होती । 'सांसरिक बंधनों से मुक्त तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ न तो सप्राण होती हैं और न निष्प्राण, अपितु वे एक अलौकिक एवं कालातीत शांति से व्याप्त होती हैं । 12 जैसा कि लॉस एंजिल्स की तीर्थंकर - प्रतिमा ( चित्र ३२८ क ) में द्रष्टव्य है, तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ पृथक् रूप से देखे जाने पर वे निःसंदेह अपने दृश्यमान रूप तथा अध्यात्मपरक रूप में प्रत्यंत गतिमान् दिखाई पड़ती हैं । लॉस एंजिल्स की इस तीर्थंकर प्रतिमा से बहुत कुछ मिलती-जुलती एक अन्य कांस्यप्रतिमा (चित्र ३२६ क ) कैंसास नगर स्थित नेल्सन गैलरी में सुरक्षित है । मुखाकृति और आकार संबंधी विशेषताओं में अंतरों के अतिरिक्त ये दोनों प्रतिमाएँ प्रायः एक समान हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों को एक ही साँचे में ढाला गया हो। कैंसास सिटी की प्रतिमा के नेत्रों का आकार असामान्य है, नासिका का अग्रभाग किंचित् क्षति ग्रस्त है । यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि ये दोनों कांस्य-प्रतिमाएँ निश्चित रूप से समसामयिक हैं और यह भी संभव है कि ये दोनों एक ही कला - केंद्र से निर्मित हुई हों । जहाँ एक ओर लॉस एंजिल्स और कैंसास सिटी की तीर्थंकर प्रतिमाएं जैन परंपरा की योगपरक सरलता और गरिमामय सौंदर्य को परिलक्षित करती हैं वहाँ भड़ौंच से प्राप्त सन् १८८ की निर्मित एक अलंकृत मंदिराकृति ( चित्र ३२६ ख ३३० ) इसके दान-दाता व्यापारी जैन धर्मानुयायी की समृद्धि और वैभवपरक अभिरुचि को प्रदर्शित करती है । इस देवकुलिका की केंद्रवर्ती प्रतिमा तीर्थंकर 1 जिम्मर (एच) फ़िलोसौफ़ी प्रॉफ़ इंडिया. 1953. न्यूयॉर्क. पु 181-82. 2 वही, पृष्ठ 211. Jain Education International 567 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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