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सिद्धांत एवं प्रतीकार्य
[ भाग १ दूसरे प्राचीर के भीतर उपवनभूमि होती है । अशोक, चंपक, आम्र और सप्तपर्ण नामक वृक्षों से शोभायमान मार्गों से विशिष्ट इस चौथी भूमि का विस्तार प्रथम भूमि के विस्तार से दोगुना होता है। यहाँ भी नाट्यशिलाएं होती हैं जिनमें नृत्य और संगीत का क्रम स्थायी रूप से चलता रहता है। चैत्य वृक्ष अर्थात् वृक्षाकार मंदिर इस भूमि को अत्यधिक उल्लेखनीय बनाते हैं। इसकी भीतरी सीमा तीसरा प्राचीर बनाता है।
प्रथम प्राचीर से दोगुने आकार के और उसी की भांति द्वारों से विशिष्ट इस प्राचीर पर विशेषत: उसके द्वारों के समीप, इतने ध्वज लहराते होते हैं कि उसके भीतर की भूमि का नाम ही ध्वज-भूमि होता है। इन लाखों ध्वजों पर सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चंद्र या वस्त्र-खण्ड, सूर्य या माला, हंस, कमल और चक्र के चिह्न अंकित होते हैं। इस भूमि की भीतरी सीमा बनाने वाला प्राचीर द्वारों और संगीत-मण्डपों की दृष्टि से धूलिशाल के समान, परंतु आकार में दोगुना होता है ।
और तब, समवसरण के छठे क्षेत्र कल्प-वृक्ष भूमि का प्रारंभ होता है जिसके वन-प्रांतरों में एक अद्भुत क्रम से बिखरे वृक्षाकार भूखण्ड अर्थात् कल्प-वृक्ष अपने चमत्कार से दर्शक को आकृष्ट किये बिना नहीं रहते। कल्प-वृक्षों के दस भेद यथानाम तथा गुण होते हैं : पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, माल्यांग, और ज्योतिरंग। इनके मध्य यत्र-तत्र नाट्य-शालाएँ और संगीत-मण्डप होते हैं और इन कल्प-वृक्षों की स्वर्णमय पीठिका पर तीर्थकर-मूर्तियां विराजमान होती हैं। प्रथम क्षेत्र से दोगुना विस्तृत यह क्षेत्र भीतर की ओर चौथे प्राचीर द्वारा सीमित होता है जिसके द्वारों की रक्षा नागकुमार करते हैं।
अब भवन भूमि में प्रवेश होगा जो समवसरण का सातवाँ क्षेत्र होता है और जिसका आकार प्रथम क्षेत्र के समान है। इसमें बहुमूल्य पाषाणों और धातुओं से निर्मित अगणित भवन तथा अन्य श्रावासगृह होते हैं और इसकी चारों वीथियों में नौ-नौ स्तूपों की एक-एक पंक्ति होती है, जिनके नाम हैं : लोक, मध्यम-लोक, मंदर, ग्रैवेयक, सर्वार्थसिद्धि, सिद्धि, भव्य, मोह और बोधि। इनमें तीर्थंकरों और सिद्धों की मूर्तियाँ विराजमान होती हैं, और दो-दो स्तूपों के मध्य सौ-सौ मकर-तोरण होते हैं। इस क्षेत्र की भीतरी सीमा पर स्थित प्राचीर आकाश-स्फटिक शाल कहलाता है क्योंकि वह श्वेत स्फटिक से निर्मित होता है। यह सभी दृष्टियों से धूलिशाल के समान होता है किन्तु इसके द्वारपाल कल्पवासी होते हैं।
इसके अनंतर एक योजन गुणित एक योजन का वह स्वच्छ और उन्मुक्त क्षेत्र होता है जिसके मध्य में श्री-मण्डप या लक्ष्मीश्वर-मण्डप नामक वर्तुलाकार प्रेक्षा-गृह घड़ी के अनुकरण पर बारह समान कोष्ठों में विभक्त होता है ; प्रति दो वीथियों के मध्य चार कोष्ठ होने से इन सबकी विभाजक भित्तियों की संख्या सोलह होती है। ये भित्तियाँ स्फटिक से बनी होती हैं और इन्हें स्वर्णमय स्तंभ आधार देते हैं। श्रोता निर्धारित कोष्ठों में ही स्थान ग्रहण करते हैं; उनका क्रम है : तीर्थंकर के पट्टशिष्य गणधर तथा अन्य मुनि, कल्पवासिनी देवियां, सभी महिलाएं तथा आर्यिकाएँ, ज्योतिष्क
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