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अध्याय 36 ]
स्थापत्य
सर्वप्रथम धूलिशाल अर्थात् मिट्टी का प्राचीर मिलता है जिसकी चारों दिशाओं के विजय, वैजयंती, जयंत और अपराजित नामक चारों दिशाओं के द्वार त्रि-तल वास्तु-कृतियाँ होती हैं जिनकी शोभा मंगल-द्रव्य, नव-रत्न, और धूप-पात्र धारण करती विशाल प्रतिमाएँ बढ़ाती हैं। द्वारों के बाहर मकर-तोरण और भीतर । रत्न-तोरण होते हैं, दोनों ओर मध्य में नाट्यशाला होती है; रत्न-दण्ड धारण किये देव इन द्वारों की रक्षा करते हैं।
धूलिशाल के भीतर १४ क्रोश का क्षेत्र चैत्य-प्रासाद भूमि कहलाता है। इस वलयाकृति या चूड़ी के आकार की विस्तृत भूमि की भीतरी सीमा पर वेदिका होती है और मध्य में प्रासादों की पंक्तियाँ । चैत्य-प्रासाद भूमि का नाम सार्थक है क्योंकि उसमें पाँच-पाँच प्रासादों के पश्चात् एक-एक चैत्य या जिनालय होता है । यहाँ से आगे बढ़ती उपयुक्त चारों वीथियों के किनारे नाट्यशालाएँ और नत्यमण्डप होते हैं।
इस क्षेत्र में जिन स्थानों पर ये चारों वीथियाँ प्रवेश करती हैं वहाँ एक-एक उत्तुंग मान-स्तंभ अर्थात् मान वाले स्तंभ होते हैं जिनका अधिष्ठान तीन पीठ वाला होता है । नीचे के पीठ में पाठ और मध्य और ऊपर के पीठों में चार-चार सोपान होते हैं । अधिष्ठान की तीसरी वेदिका के द्वारों पर चारों दिशाओं में एक-एक स्फटिकोज्ज्वल सरोवर होता है। प्रत्येक सरोवर की अपनी द्वार-सहित वेदिका होती है, उसके सोपान मणि-खचित होते हैं और प्रत्येक के साथ दो-दो लघु सरोवर और होते हैं। मान-स्तंभ की ऊँचाई संबद्ध तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगनी होती है और उसके तीन वृत्तखण्ड होते हैं, नीचे के खण्ड में वज्र की भाँति दुर्भेद्य वज्रद्वार होते हैं, दूसरा खण्ड स्फटिकमय होता है और ऊपर का वैडूर्यमय । चारों ओर चमर, घण्टियाँ, क्षुद्र-घण्टिकाएँ या किंकिणियाँ, मणिमालाएं, ध्वज आदि की छटा बिखरी होती है। मान-स्तंभ के शीर्ष पर चारों ओर एक-एक तीर्थंकर-मूर्ति होती है जो इंद्र के द्वारा इस अवसर के लिए विशेष रूप से किसी अकृत्रिम चैत्यालय से लायी जाती है और जो अष्ट प्रातिहार्यों अर्थात् अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र-त्रय, भामण्डल, दिव्य-ध्वनि देव-कृत पुष्पवृष्टि, चमर डुलाते चौंसठ यक्ष और दुंदुभि-वादक से मण्डित होती है । इस क्षेत्र की भीतरी सीमा की वेदिका में चारों ओर एक-एक द्वार होता है।
इस वेदिका के भीतर जलमय क्षेत्र अर्थात् खातिका भूमि होती है। स्फटिकोज्ज्वल जल, कमलनियों और जल-जंतुओं से भरपूर खातिका भूमि के सोपान मणिमय होते हैं।
खातिका भूमि की भीतरी सीमा पर भी एक वेदिका होती है जिसके भीतर वल्ली भूमि अर्थात् वन होता है। यह तीसरा क्षेत्र प्रथम से दोगुना विस्तृत होता है और आकर्षक दृश्य, सघन वृक्षों के मध्य लता-कुंज और मुक्ताकाश में उपलब्ध आसन इस क्षेत्र को सुविधा-संपन्न बनाते हैं । वल्ली भूमि की भीतरी सीमा पर समवसरण का दूसरा प्राचीर होता है जिसके चारों ओर यक्ष-रक्षित और शिखराकार द्वारों पर पशुओं और नारी-प्राकृतियों के चित्रांकन आकृष्ट करते हैं।
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