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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्य [ भाग १ कला के क्षेत्र में नंदीश्वर-द्वीप की पाषाण' या कांस्य की अनुकृतियाँ बनी तथा पच्चीकारी और चित्रांकन में भी उसे स्थान मिला, किन्तु स्थापत्य में वह कदाचित् गत शताब्दी में ही प्रस्तुत किया गया जब गुजरात के शत्रुजंय पर्वत पर इस नाम के दो मंदिरों का निर्माण हुआ 2 ये दोनों विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं क्योंकि उनमें बावन लघु मंदिरों के मध्य में एक-एक अतिरिक्त मंदिर भी है जो शत्रुजय पर्वत का प्रतिरूप है। कुछ दिन पूर्व बिहार के मधुवन नामक स्थान पर दिगंबर जैनों ने एक नंदीश्वर-द्वीप-जिनालय का निर्माण कराया है। मूर्तिकला में नंदीश्वर-द्वीप के शिल्पांकन के लिए दिगंबर चार पीठों की वेदी पर या मंदिर की अनुकृति पर चारों ओर तीर्थंकरों की लघुमतियाँ उत्कीर्ण करते हैं किन्तु श्वेतांबर पाषण-शिला या धातु-फलक पर तेरह-तरह के चार वर्गों में मंदिरों की बावन प्राकृतियाँ विभिन्न कलात्मक रूपों में उत्कीर्ण करते हैं। समवसरण तीर्थंकर की दिव्य-ध्वनि समवसरण में ही उच्चरित होती है जिसकी रचना सौधर्म इंद्र के आदेश पर कुबेर द्वारा माया से की जाती है। तीर्थंकर का प्रस्थान होते ही वह समवसरण विघटित हो जाता है और अन्य स्थान पर उसकी रचना पुनः की जाती है । सूर्य-मण्डल की भाँति वर्तु लाकार यह रचना एक ऐसी वास्तु-कृति के समान है जिसे विशाल सोद्यान-प्रेक्षागृह या पार्क-कमऑडिटोरियम कहा जा सकता है, किन्तु इसका विस्तार १२ योजन होता है। उसके उत्तुंग अधिष्ठान पर चारों मोर से दो-दो हजार सोपानों से पहुँचा जाता है, प्रत्येक सोपान एक हस्त ऊँचा होता है। तब, दोनों ओर वेदिकाओं से सुरक्षित वीथियाँ या विस्तृत मार्ग प्रारंभ होते हैं। चारों ओर से प्रागे बढ़ती ये वीथियाँ नीलमणियों के क्षेत्र से होती हई समवसरण के केंद्र तक पहुँचती हैं। स्फटिक मणियों से जटित वेदिकाओं के सतोरण गोपुरों पर लहराते ध्वज और बंदनवार आकृष्ट करते हैं। 1 रामचंद्रन (टी एन) ने एक पाषाण-निर्मित लघु नंदीश्वर-द्वीप का उल्लेख किया है, उसका प्राकार चतुष्कोण पीठ पर निर्मित विमान की भांति है जिसके चारों ओर एक-एक देवकोष्ठ है। समूचे विमान पर शिखर की संयोजना से यह कृति एक भव्य जिन-प्रसाद की अनुकृति-सी बन पड़ी है। द्रष्टव्यः तिरुप्परुत्तिक्कुण्रम् एण इट्स टेम्पल्स, 1934, मद्रास, पृ 181, चित्र 21, रेखाचित्र 4. 2 फर्ग्युसन (जे) हिस्ट्री प्रॉफ़ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न प्राकिटेक्चर, (संशोधित संस्करण), 1967, दिल्ली, भाग 2. 1 29-30. रेखाचित्र 279, वहाँ इन मंदिरों का विस्तृत परिचय भी दिया गया है. 3 तीर्थंकर केवल कर्मभूमियों में उत्पन्न होते हैं, भोगभूमियों में नहीं. 4 उत्तरोत्तर तीर्थंकरों के समवसरणों का विस्तार क्रमशः कम होता गया है, पर विदेह क्षेत्रों में वह आद्योपांत 12 योजन ही रहता है. 544 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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