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सिद्धांत और प्रतीकार्थ
[ भाग १ मेरु का अंकन स्थापत्य में कदाचित् कहीं नहीं हुआ, मूर्तिकला' और चित्रकला के अंतर्गत अवश्य हुआ । चैत्यालयों और पाण्डुक वन की शिलाओं के कारण ही वास्तव में मेरु का महत्त्व है।
यहाँ मेरु शब्द का अर्थ पर्वत किया जा सकता है (रेखाचित्र ४७) परंतु स्थापत्य के अधिकांश ग्रंथों में इसे प्रासादों का एक भेद माना गया है जो प्रायः बह-तल होता है। बृहत्संहिता (५६, २०) के अनुसार षट्कोण भवनों के एक भेद में बारह तल, चित्र-विचित्र गवाक्ष और चार द्वार होते हैं, ये भवन ५२ हस्त चौड़े और ४५ प्रकार के होते हैं । कुछ जैन अभिलेखों और साहित्य में ऐसे मंदिरों के निर्माण का उल्लेख है जिनका नामकरण मेरु के नाम से हुआ परंतु ऐसे विशेष प्रकार के भवनों के अवशेष अबतक प्राप्त नहीं हुए। बूलर का संकेत है कि राजस्थान के अजमेर, जैसलमेर, बाड़मेर आदि कुछ नगरों के नामों में जो 'मेर' शब्द का प्रयोग है वह प्रासाद के मेरु नामक भेद का सूचक है, अर्थात् मेरु नामक प्रासाद के निर्माण से किसी के नाम में ही मेरु शब्द जुड़ गया और वह जुड़ा हुआ नाम ही उस नगर का रखा गया जिसे उसने बसाया । यह संकेत प्रशंसनीय है परंतु उक्त नामों का उत्तरार्ध 'मेर' मरु अर्थात् रेगिस्तान का अपभ्रंश प्रतीत होता है।
नंदीश्वर द्वीप
इस लोक के असंख्यात द्वीप-समुद्रों में से ढाई द्वीपों के अनंतर नंदीश्वर नामक आठवें द्वीप (इसी अध्याय में पृष्ठ ५३४) का ही महत्त्व सर्वोपरि है । इस वृत्ताकार द्वीप के भीतरी और बाहरी तटों के मध्य चार पर्वत हैं: पूर्व में देवरमण, दक्षिण में नित्योद्योत, पश्चिम में स्वयंप्रभ और उत्तर में रमणीय जिन्हें सामान्य रूप से अंजन कहते हैं क्योंकि उनका रंग काला है। प्रत्येक अंजन के चारों ओर एकएक चतुष्कोण सरोवर है जिसमें दधिमुख नामक पर्वत है । दही के समान श्वेत और आकार में गोल इस पर्वत के ऊपर तट-वेदियाँ और उपवन हैं। चारों सरोवरों के दोनों बाहरी कोणों पर स्वर्णमय वर्तुलाकार पर्वत हैं, उनका सामान्य नाम रतिकर है । तात्पर्य यह हुआ कि पर्वतों की संख्या बाबन है : चार अंजन, सोलह दधिमुख, बत्तीस रतिकर । सरोवरों के अपने नाम हैं : पूर्व में नंदा, नंदावती,
1 शाह. (उमाकांत प्रेमानंद), स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955, बनारस, पृ 17-18. वे चित्र 78 और उसके प्रसंग
में एक मेरु को पंच-मेरु कह गये हैं. 2 प्राचार्य. (प्रसन्न कुमार) वही, पृ 512-15. 3 जर्नलमॉफ रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, न्यू सीरिज, 6, 318. 4 जी. बूलर का लेख, इडियन ऐण्टिक्वेरी. 26, पृ 164 पर प्रकाशित, बूलर ने इस संदर्भ में कई उदाहरण दिये
हैं. एक उदाहरण और है : जय-मेरु-श्री-करण-मंगलम्, द्रष्टव्य, ई. हुल्श का लेख 'इंस्क्रिप्शंस ऑफ़ राजराज
1, क्र.50, साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, 3, 4 103. 5 न कि अंतिम द्वीप, जैसाकि उमाकांत प्रेमानंद शाह लिख गये हैं, वही, पृ 118. 6 जिनप्रभ-मूरि के विविध-तीर्थकल्प 1934, शांतिनिकेतन, 48-49. में 'नंदीश्वर-द्वीप-कल्प' में पर्वतों आदि के
नामों में साधारण-सा अंतर है.
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