SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय 36] स्थापत्य नंदोतरा और नंदिघोषा; दक्षिण में अरजा, बिरजा, अशोका और वीताशोका; पश्चिम में विजया, वैजयंती, जयंती और अपराजिता; उत्तर में रम्या, रमानुजा, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा। सरोवर वनों के मध्य में हैं, जिनमें क्रमशः, अशोक, सप्तच्छद या सप्तपर्ण, चंपक और आम्रवृक्ष विशेष रूप से हैं। ऐसे वन चौंसठ हैं। प्रत्येक के मध्य एक-एक प्रासाद है जिनमें सपरिवार व्यंतर देव रहते हैं। ये प्रासाद चतुष्कोण हैं और इनकी लंबाई से ऊँचाई दोगुनी है। पर्वतों के अग्रभाग पर एक-एक प्रकृत्रिम जिनालय है, सब बावन हैं। प्रत्येक अकृत्रिम चैत्यालय १०० योजन लंबा, उससे आधा चौड़ा और ७० योजन ऊंचा है और उसके चारों ओर द्वार हैं, मंदिरों में १६ योजन के प्रायताकार तथा योजन ऊँचे मणिपीठक हैं। उनपर देवच्छंदक अर्थात रत्नमय मंच हैं जो मणिपीठकों से अधिक लंबे-चौड़े हैं। इन देवच्छंदकों पर तीर्थंकरों की एक सौ आठ शाश्वत पर्यकासनस्थ प्रतिमाएं विराजमान हैं। ये रत्न-निर्मित हैं और प्रत्येक के परिकर में एक नाग, दो यक्ष, दो भूत, दो कलशवाहक और एक छत्र-धारक है । मंचों पर धूप-पात्र, पुष्पहार, घण्टियाँ अष्ट-मंगल द्रव्य, ध्वज, बंदनवार, पेटक, मंजूषा और प्रासन तथा पूर्ण-घट आदि सोलह अलंकार होते हैं। इन प्रासादों में मुख-मण्डप, प्रेक्षा-मण्डप, अक्ष-वाटक अर्थात् अखाड़े, मणिपीठक, स्तूप, मूर्तियाँ चैत्य-वक्ष, इंद्र-ध्वज और कमल-सरोवर भी इसी क्रम से हैं। इन बावन चैत्यालयों में देव-वर्ग प्रतिवर्ष तीन बार आष्टाह्निक पर्व का आयोजन करते हैं जिसका अनुकरण आज भी जैन समाज में चल रहा है। यह उत्सव आषाढ़, कार्तिक और फाल्गन के शुक्ल पक्षों के अंतिम आठ दिनों में मनाया जाता है। बृहत् जैन शब्दार्णवर में उल्लिखित नंदीश्वर-पंक्तिव्रत कदाचित् इसी आष्टाह्निक उत्सव का प्रतिरूप है। प्रवचन-सारोद्धार के अनुसार, ऐसा ही एक उत्सव नंदीश्वर तप के नाम से श्वेतांबर जैनों द्वारा नंदीश्वर-पट की पूजा के साथ संपन्न किया जाता है। ठक्कर फेरु ने मंदिर के भेदों में द्वापंचाशत-जिनालय का भी विधान किया है, यह बावन लघु मंदिरों का एक समूहमात्र है (रेखाचित्र ४८) जिनमें मध्यवर्ती मुख्य मंदिर भी सम्मिलित है (रेखाचित्र ४६) और जिनकी संयोजना सत्रह-सत्रह की दो पार्श्व-पंक्तियों में, आठ की अग्र-पंक्ति में यह संख्या बावन ही है, अधिक नहीं, जैसा कि शाह ने संदेह व्यक्त किया है। जिसे वे 'शाश्वत जिनालय-सहित मध्यवर्ती पर्वत' कहते हैं वह वस्तुतः अंजन है जिसके बिना बावन की संख्या पूरी नहीं होती. इस संदेह की पुष्टि में उन्होंने जो प्राचीन ग्रंथों के संदर्भ दिये हैं उनसे भी इस संख्या के बावन से अधिक होने का समर्थन नहीं होता. द्रष्टव्य, शाह, वही, पृ 120. 2 भाग 2, 1934, सूरत, पृ 512. 3 इसपर सिद्धसेन गणी की टीका विशेष रूप से द्रष्टव्य है, 1952, बंबई. गाथा 1915. 541 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy