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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ [भाग १ बढ़ाते हैं। भरत-क्षेत्र के शिशु तीर्थंकर को इसी पाण्डुक शिला के सिंहासन पर विराजमान करके क्रमशः दक्षिण और उत्तर के भद्रासनों पर आसीन होकर सौधर्मेंद्र और ऐशानेंद्र जन्माभिषेक करते हैं । आग्नेय विदिशा में स्थित उत्तर-पश्चिम लंबी पाण्डु-कंबला नामक रजतमय शिला पर अपर-विदेह क्षेत्र के शिश तीर्थंकर का जन्माभिषेक होता है । नैऋत्य में उत्तर-दक्षिण स्थित स्वर्णमय रक्त नामक शिला और वायव्य में पूर्व-पश्चिम स्थित रक्ताभ रक्त-कंबल शिला पर क्रमशः ऐरावत और पूर्व विदेह के शिशु तीर्थंकरों का अभिषेक होता है । पाण्डुक वन में चूलिका के समीप पूर्व दिशा में एक ३० क्रोश ऊँचा वर्तुलाकार पूर्वाभिमुख प्रासाद है। लोहित नामक इस सुसज्जित प्रासाद के मध्यभाग में एक क्रीडाशैल है। लोहित में पूर्व दिशा के लोकपाल सोम का आवास है। इसी प्रकार दक्षिण में अंजन, पश्चिम में हारिद्र और उत्तर में पाण्डुक नामक प्रासाद हैं जिनमें क्रमशः उसी दिशा के लोकपाल यम, वरुण और कुबेर निवास करते हैं। पाण्डक वन की चारों दिशाओं में १०० क्रोश लंबा और ७५ क्रोश ऊँचा एक-एक जिनेंद्र-प्रासाद भी है। सौमनस नामक तृतीय वन पाण्डक वन से ३६,००० योजन नीचे स्थित है। यह ५०० योजन चौड़ा है और यहाँ भी विशाल वेदिका आदि हैं । यहाँ के वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णप्रभ नामक प्रासादों का विस्तार पाण्डुकवन के प्रासादों के विस्तार से दोगुना है और उनमें भी क्रमशः उपर्युक्त लोकपालों का ही आवास है। इस वन की विदिशाओं में सोलह पुष्पकरिणियां या कमल-सरोवर हैं और उनके मध्य में एक-एक विहार-प्रासाद है। प्रत्येक विहार-प्रासाद १२५ क्रोश ऊँचा और उससे धा चौडा है और उसके मध्य में सौधर्मेंद्र का भव्य सिंहासन है जिसके साथ अन्य अनेक देव-देवियों के सिंहासन हैं : लोकपालों के चार, प्रतींद्र का एक, अग्रमहिषियों अर्थात् पट्टरानियों के पाठ, प्रवर वर्ग के बत्तीस हजार, चौरासी लाख सामानिक वर्ग के लिए, बारह लाख पारिषदों के लिए, चौदह लाख मध्यम पारिषदों के लिए, सोलह लाख बाह्य परिषदों के लिए, तेतीस त्रायस्त्रिंश वर्ग के लिए, छह महत्तरों के लिए, एक महत्तरी के लिए और चौरासी हजार अंगरक्षकों के लिए । सोलह पुष्करिणियों के नाम हैं : उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला और उत्पलोत्पला आग्नेय में; भृगा, भृगनिभा, कज्जला और कज्जलनिभा नैऋत्य में; श्रीभद्रा, श्रीकांता, श्रीमहिता और श्रीनिलया वायव्य में; और लिना, नलिनगूल्मा, कूमदा और कूमदप्रभा ऐशान में। पाण्डक की भाँति इस वन में भी चार जिनेंद्र-प्रासाद हैं। इस वन की प्रत्येक दिशा और उपदिशा में १०० योजन ऊँचा और भूतल पर उतना ही चौड़ा एक-एक कट है। इन कूटों पर क्रमशः मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा. मेघमालिनी, तोयंधरा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिंदिता नामक आठ कन्याकुमारियाँ निवास करती हैं। नंदन वन का प्राकार-प्रकार भी सामान्यतः उपर्युक्त है, किन्तु विस्तार में यह सौमनस वन से दोगुना है । भद्रशाल वन का आकार-प्रकार भी सामान्यतः अन्य वनों की भांति है। इसका विस्तार पाण्डुक वन से चौगुना है। 538 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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