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________________ अध्याय 36 ] स्थापत्य मेरु मेरु पाँच हैं : जम्बू द्वीप के मध्य में सुदर्शन, धातकीखण्ड के पूर्व में विजय और पश्चिम में । अचल तथा पुष्करार्ध के पूर्व में मंदिर और पश्चिम में विद्युन्माली। पाँचों अलग-अलग विदेह-क्षेत्रों में स्थित हैं और उन सबका आकार-प्रकार एक-सा है, केवल जम्बूस्थित सुदर्शन उन सबसे ऊँचा है, इसीलिए उसे मेरु के बदले सुमेरु कहा जाता है। सुदर्शन भूतल के नीचे १,००० योजन और ऊपर ६५,००० योजन है और वह नीचे अधोलोक को और ऊपर ऊर्ध्वलोक को छूता है। सबसे नीचे उसका विस्तार १०,०६०१ योजन है जो भूतल तक कम होकर १,००० योजना रह जाता है, वहाँ उसके चारों ओर भद्रशाल वन है। वहाँ से ५०० योजन की ऊँचाई तक उसका विस्तार ५०० योजन कम हो जाता है जहाँ उसे नंदनवन चारों ओर अलंकृत करता है। फिर ६०,५०० योजन की ऊँचाई तक विस्तार में पुनः ५०० योजन की कमी आती है और यहाँ उसे सौमनस वन शोभायमान करता है। उसके पश्चात् ३६,००० योजन की ऊँचाई तक विस्तार की कमी ४६४ योजन है. यहाँ उसके चारों ओर पाण्डक वन शोभायमान है और यहीं से ४० योजन ऊँची और ४ योजन विस्तृत चूलिका या शिखर-भाग प्रारंभ होता है । सुमेरु का चारों ओर का तल हरिताल, वैड्र्य, सर्वरत्न, वज्र, पद्म और पद्मराग नामक मणियों से अलंकृत है और १६,५०० योजन के प्रत्येक अंतराल पर उसके रूपों में विविधता है। भूतल पर सुमेरु की चारों उपदिशाओं में एक-एक वक्षार गिरि है। गजदंत के-से आकार के ये वक्षार गिरि अपने दूसरे । छोरों से महाशैल, नीलाद्रि, निषध पर्वत और नंदन शैल को छते हैं। प्रत्येक वन की चारों दिशाओं में एक-एक चैत्यालय है, अर्थात् एक मेरु के सोलह और पांचों के अस्सी चैत्यालय हैं। ये सभी मेरुओं की ही भाँति अकृत्रिम और शाश्वत हैं। भद्रशाल वन के पाँच भाग हैं : भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण; किन्तु नंदन, सौमनस और पाण्डुक वनों के भाग दो-दो ही हैं। पाण्डुकवन के चारों ओर तट-वेदिका है जो ध्वजारों से सुशोभित है और जिसपर बहु-तल भवन विद्यमान हैं। यह २ क्रोश ऊँची और ५०० धनुष चौड़ी है और इसके गोपुर मणिमय हैं। पाण्डक की वनस्थलियों में विविध वृक्षों और वन्य प्राणियों की छटा है तो जहाँ-तहाँ विद्याधरों और देवों के युगल विहार किया करते हैं। उसकी चार दिशाओं में १०० योजन लंबी और ५० योजन चौड़ी और ८ योजन ऊँची एक-एक अर्धचंद्राकार शिला है। उत्तर दिशा की पाण्डुक नामक स्वर्णमय शिला लंबाई में उत्तर दक्षिण स्थित है; सग्गायणी नामक प्राचार्य ने इसकी ऊंचाई ४ योजन, लंबाई ५०० योजन और चौड़ाई २५० योजन मानी है ।। इस शिला के मध्य में एक देदीप्यमान सिंहासन और उसकी दोनों ओर एक-एक भद्रासन स्थित है और छत्र, चमर आदि मंगल-द्रव्य उनकी महिमा - ] तिलोय-पण्णत्ती, 4, 1821. 537 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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