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अध्याय 36 ]
स्थापत्य
भवनवासी मनुष्यलोक में और कुछ नरकलोक में भी आवास करते हैं । उनके अकृत्रिम और शाश्वत भवनों में जिन चैत्यालय हैं। व्यंतर देव प्रथम पृथ्वी के खरभाग में प्रगणित द्वीप समुद्रों के उस पार रहते हैं, किन्तु उनका एक भेद राक्षस प्रथम पृथ्वी के ही पंक-बहुल भाग में रहता है । ज्योतिषी देवों की विशेषता यही है कि वे निरंतर मेरु की प्रदक्षिणा करते रहते हैं, किन्तु मानुषोत्तर पर्वत के बाहर
स्थिर हैं । इनमें से सूर्य और चंद्र के विमानों में जिन चैत्यालय हैं । केवल वैमानिक देव ही ऊर्ध्वलोक या स्वर्गलोक में रहते हैं जिसमें सोलह कल्प विमान, नौ ग्रैवेयक विमान, 2 नौ अनुदिश विमान ' और पाँच अनुत्तर विमान हैं । कल्प और ग्रैवयक विमानों के अधिकांश और शेष विमानों के सब देव प्रकृति से ही जिनेंद्र-भक्त होते हैं ।
एक सौ इंद्रों में एक मानवेंद्र अर्थात् राजा और एक पशु अर्थात् सिंह के अतिरिक्त शेष सभी देव ही होते हैं । यक्ष-यक्षियाँ, शासनदेव, शासनदेवियाँ, दिक्पाल, क्षेत्रपाल, भैरव, विद्यादेवियाँ, सरस्वती, लक्ष्मी, गंगा, यमुना, अप्सराएँ, दुंदुभिवादक, चमरधारी, चमरधारिणियाँ आदि सभी देव तथा विद्याधर, भक्त यादि मानव तीर्थंकरों के परिचारकों के रूप में या मंदिर के विभिन्न भागों में विभिन्न रूपों में अंकित किये जाते हैं ।
प्रतीक-मंदिर
सामान्य दृष्टि से मंदिर स्वयं एक प्रतीक है । विशेष दृष्टि से मंदिर के नंदीश्वर द्वीप, अष्टापद ( रेखाचित्र ४६ ) आदि विविध रूप स्थापत्य के अंतर्गत हो सकते हैं, किन्तु उसके कुछ रूप केवल ग्रंथों में प्रतिपादित तो किये गये पर स्थापत्य में उन्हें प्रस्तुत नहीं किया गया।
स्तूप, चैत्यवास, निषीधिका आदि कुछ रूप मंदिर की श्रेणी में रखे जायें या नहीं, किन्तु, अंततोगत्वा, उपासना के स्थान होने से उनका वर्णन इस प्रसंग में किया जा सकता '
नही; वह पूर्ण रूप से स्थिर आवासगृह है, अवश्य ही उसका ग्राकार प्राचीन विमान के समान होता है.
1 सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, महेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, अनत, प्रारणत, आरण और अच्युत.
2 सुदर्शन, अमोघ, सुबुद्ध, पयोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस्, सौमनस और प्रियंकर.
3 लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिक, वैरेवक. रोचनक, सोम, सोमरूप्य, अंक, पल्यंक और आदित्य ।
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विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि.
इनकी गणना इस गाथा में की गयी है : भवणालय चालीसा व्यंतरदेवारण होंति बत्तीसा । कप्पामर चउबीसा चंदो सूरो खरो तिरियो ॥
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