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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ [ भाग १ जो जम्बुद्वीप में है, अर्थात् धातकी खण्ड में क्षेत्रों, कुलाचलों, मेरु आदि की दोहरी रचना है। किन्तु यहाँ कुलाचलों की स्थिति वैसी है जैसी चक्र में अरों की होती है और क्षेत्रों का प्राकार अरों के मध्य के स्थान की भाँति होता है। तृतीय द्वीप पुष्करवर एकमात्र ऐसा है जिसे चारों ओर विस्तृत एक वृत्ताकार पर्वत दो भागों में विभक्त करता है। उस पर्वत का नाम मानषोत्तर सार्थक है क्योंकि उसके उत्तर में अर्थात् बाहर मनुष्यों की गति नहीं। भीतरी पुष्करार्ध में, धातकी खण्ड की भाँति, दो भरत, दो हिमवत्, दो मेरु आदि हैं, किन्तु बाहरी पुष्कराध तथा उससे आगे के द्वीपों में इस प्रकार का विभाजन नहीं है। इस सबका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य केवल ढाई द्वीपों के क्षेत्र में ही होते हैं जो मध्यलोक के ही नहीं बल्कि संपूर्ण लोक के केंद्र में है। इससे यह तात्पर्य भी निकलता है कि सात क्षेत्रों, छह कुलाचलों, चौदह महानदियों, एक मेरु आदि का एक समूह है, और ऐसे पाँच समूह हैं। यह उल्लेखनीय है कि पाँच-पाँच भरत, विदेह, (देवकुरु और उत्तरकुरु भागों को छोड़कर) और ऐरावत कर्मभूमियाँ हैं जिनमें जीवन-निर्वाह के लिए पुरुषार्थ अनिवार्य है, और पाँच-पाँच हैमवत, हरि, देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत भोगभूमियाँ हैं जिनमें सुखभोग की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है। पाँचवें समद्र क्षीरवर के जल की विशेष महिमा है क्योंकि इंद्र तीर्थंकर के जन्माभिषेक के लिए इसी जल से कलश भरता है, और दीक्षा के समय तीर्थंकर जब केशलोंच करते हैं तब उनके केश इसी जल में विसजित किये जाते हैं। नंदीश्वर नामक पाठवाँ (पृष्ठ ५४०), कुण्डलवर नामक दशवा और रुचकवर नामक तेरहवाँ द्वीप अकृत्रिम चैत्यालयों के कारण महत्त्वपूर्ण हैं (पृष्ठ ५४१), द्वितीय जम्बू द्वीप तथा कुछ अन्य द्वीपों में पाताल-नगरियाँ हैं जिनमें केवल भवनवासी देवों के ही आवास हैं। देवों के चार निकाय हैं : भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक । इनमें से । इसके सविस्तार वर्णन के लिए द्रष्टव्यः गोपीलाल अमर का लेख 'द्वितीय जम्ब द्वीप', अनेकान्त (हिंदी त्रैमासिक): 22, 1, 1969, दिल्ली, 1 20-24. 2 उनके दस भेद हैं : असुर, नाग, विद्युत् सुपर्ण, अग्नि, व त, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक्, प्रत्येक के साथ कुमार शब्द जुड़ता है. 3 उनके पाठ भेद हैं : किनर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच. उनके पांच भेद हैं : सूर्य, चद्र, ग्रह, नक्षत्र और विभिन्न तारे. 5 जिनमें रहकर कोई अपने विशेष मान का अनुभव करे उन आवासों को विमान कहते हैं और जो विमानों में रहते हैं उन्हें वैमानिक कहते हैं। यहाँ विमान शब्द का अर्थ आकाश में चलने वाला रथ या वायुयान कदापि 534 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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