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________________ अध्याय 36] स्थापत्य मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोक में असंख्य द्वीप हैं, प्रत्येक एक समुद्र से घिरा है। सभी वृत्ताकार हैं, और द्वीप से दूना चौड़ा है उसे घेरने वाला समुद्र, उस समुद्र से दूना चौड़ा उसे घेरने वाला द्वीप, उससे भी दूना चौड़ा उसे घेरने वाला समुद्र, और इसी तरह अंत तक । जम्बू नामक प्रथम द्वीप एकमात्र ऐसा है जो किसी समुद्र या द्वीप को घेरे हुए नहीं है, बल्कि वर्तुलाकार है । जम्बू द्वीप का विस्तार एक लाख महायोजन' है और उसके मध्य में सुमेरु पर्वत उसी प्रकार स्थित है जिस प्रकार शरीर में नाभि होती है। पूर्व-पश्चिम विस्तृत हिमवत्, महाहिमवत् निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नामक छह कुलाचलों अर्थात् महापर्वतों से यह द्वीप भरत, (रेखाचित्र ४५) हैमवत, हरि, विदेह,6 रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्रों में विभक्त है। उन छह कुलाचलों पर क्रमशः पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केशरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नामक हद या सरोवर हैं। इन सरोवरों में कमलाकार द्वीप हैं, उनमें देव-परिवार रहते हैं और उनकी अधिष्ठात-देवियों के क्रमश: नाम हैं--श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी । सातों क्षेत्रों में दो-दो महानदियाँ और उनकी हजारों सहायक नदियाँ हैं, दो में पहली पूर्व की ओर और दूसरी पश्चिम की ओर बहती है। द्वितीय द्वीप धातकीखण्ड दो उत्तर-दक्षिण विस्तृत पर्वतों से विभक्त है जिनके बाहरी छोर काल-समुद्र के और भीतरी छोर लवण-समुद्र के वेदिका-वेष्टित तटों को छूते हैं और जो इस द्वीप को पूर्व और पश्चिम नामक भागों में विभक्त करते हैं। पूर्व और पश्चिम में पृथक-पृथक वही रचना है 1 प्रथम द्वीप जम्बू लवण नामक समुद्र से घिरा है, वह धातकीखण्ड द्वीप मे घिरा है, वह काल समुद्र से, वह भी पुष्करवर द्वीप से और वह अपने ही नाम के समुद्र से, जैसा कि आगे भी होता गया है, अर्थात् द्वीप और उसे घेरने वाले समुद्र के नाम एक जैसे होते गये हैं. चौथे और उससे आगे के द्वीप हैं : वारुणीवर, क्षीरवर, घृतवर, क्षौद्रवर, नंदीश्वर, अरुणवर, कुशवर, क्रौंचवर प्रादि । अंत से प्रारंभ करने पर कुछ नाम हैं : स्वयंभूरमण, अहींद्रवर, देववर, यक्षवर, भूतवर, नागवर, वैडूर्यवर, वज्रवर, सुवर्णवर, रूप्यवर, हिंगुलिकवर, अंजनकवर, श्यामवर, सिंदूरवर, हरितालवर, मतःशिल आदि. 3 दूरी का एक माप. अंगुल नामक माप लगभग एक इंच के बराबर होता है, चौबीस अंगुल बराबर एक हस्त, चार हस्त बराबर एक धनुष या चाप, 2,000 धनुष बराबर एक क्रोश या 2 मील, 4 क्रोश बराबर एक सामान्य योजन, किंतु 2,000 क्रोश बराबर एक महायोजन. 4 विस्तृत विवरण प्रागे पृष्ठ 537 पर द्रष्टव्य है. 5 लोकविद्या में पाये नामों में और कला और स्थापत्य में आये नामों में न केवल सादृश्य है, बल्कि उस सादश्य का कोई विशेष महत्त्व भी हो सकता है. 6 इस क्षेत्र के तीन भाग हैं : देवकुरु, उत्तरकुरु और विदेह. 7 यह क्षेत्र भी, भरत की ही भाँति, पूर्व-पश्चिम विजयार्घ नामक पर्वत से और उत्तर-दक्षिण दो महानदियों से छह खण्डों में विभक्त हो गया है। बीच का बाहरी खण्ड आर्यखण्ड और शेष पाँच म्लेच्छखण्ड कहलाते हैं. उनके नाम हैं : गंगा, सिंधु, रोहित्, रोहित स्या, हरित्, हरिकांता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकांता, सुवर्णकला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा. 533 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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