________________
अध्याय 36]
स्थापत्य
एक निश्चित माप में कम भी किया जा सकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अंत्यज या चण्डाल के गृह क्रमशः ३२ गुणित ३५, २८ गुणित ३१३, २४ गुणित २८, २० गुणित २५ और १६ गुणित २० हस्त के हों । गृह की चौड़ाई के सोलहवें भाग में चार हस्त जोड़ने से प्रथम तल की ऊँचाई निकाली जाये।
विभिन्न भागों की विविधता और संख्या तथा अन्य विशेषताओं के कारण आवासगह सोलह हजार तीन सौ चौरासी प्रकार के हो सकते हैं । संक्षेप में, आवासगृहों के सोलह सार्थक नाम हैं : ध्रुव, धन्य, जय, नंद, खर, कांत, मनोरम, सुमुख, दुर्मुख, क्रूर, सुपक्ष, धनद, क्षय, आक्रंद, विपुल और विजय ।
आवासगृहों को उनके माप और स्थिति के अनुसार चौंसठ सार्थक नाम दिये जा सकते हैं : (१-८) शांतन, शांतिद, वर्धमान, कुक्कुट, स्वस्तिक, हंस, वर्धन, कर्बुर ; (६-१६) शांत, हर्षण, विपुल, कुरल, वित्त, चित्त या चित्र, धन, कालदण्ड ; (१७-२४) भद्रक, पुत्रद, सर्वांग, कालचक्र, त्रिपुर, सुंदर, नील, कुटिल ; (२५-३२) शाश्वत, शास्त्रद, शील, कोटर, सौम्य, सुभग, भद्रमान, क्रूर ; (३३-४०) श्रीधर, सर्वकामद, पुष्टिद(क), कीर्तिनाशक, शृंगार, श्रीवास, श्रीशोभ, कीर्तिशोभनक ; (४१-४८) युगश्रीधर, बहुलाभ, लक्ष्मीनिवास, कुपित, उद्योत, बहुतेजस्, सुतेजस कलहावह ; (४६-५६) विलास, बहुनिवास, पुष्टिद (ख), क्रोधसन्निभ, महांत, महित, दुःख, कूलच्छेद; (५७-६४) प्रतापवर्धन, दिव्य, बहुदुःख, कण्ठच्छेदन, जंगम, सिंहनाद, हस्तिज और कण्टक ।
बहुतजस्, सुतेजस्,
आवासगृहों को एक अन्य प्रकार से आठ वर्गों में भी रखा जा सकता है : सूर्य, वासव, वीर्य, कालाक्ष, बुद्धि, सुव्रत, प्रासाद और द्विवेध । इनमें से प्रत्येक सोलह प्रकार का होता है अतः समूची संख्या एक सौ अट्ठाइस होगी।
इन सबके अतिरिक्त एक प्रकार से और भी आवासगृहों का, विशेषतः राजाओं के आवासगहों का, वर्गीकरण संभव है । आवासगृह की वर्तुलाकार संयोजना का निषेध है, केवल राजा यदि चाहे तो उसके लिए विधान है।
मंदिर की मान्यता
संस्कृत के दो शब्द 'मंदिर' और 'पालय' सामान्य रूप से किसी छायावान वास्तु का बोध कराते हैं, किन्तु उनका एक अर्थ, विशेष रूप से जैन धर्म के संदर्भ में, 'देवालय' भी है; पर जैन धर्म में इन दोनों शब्दों से भी प्राचीन शब्द है-'आयतन', जिसका अस्तित्व महावीर के काल में भी था क्योंकि वे अपने विहारों के समय यक्षायतनों में ठहरा करते थे। बाद में इस आयतन शब्द का उपयोग
515
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org