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सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ
[ भाग 9 जिनायतन शब्द के अंतर्गत होने लगा और उसके भी बाद मंदिर, पालय, गेह, गह आदि शब्दों ने उसका स्थान ले लिया।
जैन धर्म में मंदिर की मान्यता का रहस्य कदाचित् कहीं प्रकट नहीं किया गया। मंदिर अनिवार्य रूप से किसी तीर्थंकर को समर्पित होता है इसलिए उसे एक स्मारक की संज्ञा देना किसी सीमा तक तर्कसंगत हो सकता है पर यह निश्चित है कि मंदिर ऐसा स्मारक नहीं जो किसी के अंतिम संस्कार के स्थान पर अथवा अस्थि आदि अवशेषों पर निर्मित किया जाता है। इसके विपरीत, मंदिर को एक अतदाकार स्थापना या प्रतीक मानना अधिक तर्कसंगत होगा; वह मेरु का नहीं बल्कि समवसरण का प्रतीक हो सकता है (पृष्ठ ५४४) जो तीर्थंकर की सभा के लिए दिव्य माया से निर्मित एक विशाल प्रेक्षागृह होता है; और पाँचों परमेष्ठियों में जिनकी वंदना सर्वप्रथम की जाती है? उनमें तीर्थंकर ही ऐसा है जो अपना उपदेश केवल समवसरण में देता है और मूर्ति के रूप में सर्वप्रथम अंकन भी उसी का हुआ और उसी का तदाकार प्रतीक प्रत्येक मंदिर में मलनायक के स्थान पर अनिवार्य है। अनेक प्राचीन और नवीन मंदिरों के समक्ष मानस्तंभ विद्यमान हैं जो समवसरण का ही एक भाग होता है (पृष्ठ ५४५) । यही कारण है कि एक बार मंदिर-स्थापत्य के रूप में प्रतीकबद्ध हो चुका समवसरण दूसरी बार किसी लघु प्रतीक के रूप में भी प्रस्तुत नहीं किया गया। जैन धर्म में समवसरण की मान्यता असाधारण है, उसे स्तूप या ऐडूक, जारूक या जालूक और ज़िग्गुरात पर (पृष्ठ ५४४) आदि किसी के अंतिम संस्कार के स्थान पर अथवा अस्थि आदि अवशेषों पर निर्मित स्मारकों की श्रेणी में रखना अनुचित होगा। चैत्य शब्द का उल्लेख यदि यहाँ किया जा सके तो उससे इस मान्यता को बल मिलेगा। आयतन और चैत्य, इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है । ग्रंथों में समवसरण की जो रचना वर्णित है वह इतनी जटिल है कि उसके प्रतीक के रूप में मंदिर को जो प्राकार मिला उसमें यद्यपि उन ग्रंथों के अनेक विधानों का पालन किया गया और उसका विस्तार भी यथासंभव विशाल रखा गया, तथापि उस देवगृह का नाम समवसरण नहीं बल्कि आयतन या चैत्य के रूप में प्रचलित हुआ । महावीर अपने विहार के समय चैत्यों में भी रुकते थे जो कदाचित् आयतन या मंदिर ही थे, जिनमें ही रुकने का विधान मुनियों के प्राचार-शास्त्र में है। चैत्य शब्द के, बाद में या साथ-ही-साथ अनेक अर्थ प्रचलित हुए । उसका एक अर्थ मूर्ति भी हुआ जिसके मंदिर में स्थापित किये जाने पर चैत्य-विहार, चैत्य-गृह, चैत्यालय आदि ऐसे शब्द बने जिनका एक-जैसा अर्थ मंदिर निकलता है।
इस मान्यता के आधार पर उद्भूत जैन मंदिर का विकास अपनी समकालीन परंपराओं के मंदिरों के साथ एक ही प्रवाह में कभी तीव्र और कभी मंद गति से, निरंतर होता रहा । यही कारण
1 'इसमें संदेह नहीं कि मंदिरों और अंतिम संस्कार के स्थानों में कोई एकरूपता है.' आनंदकुमार कुमारस्वामी,
हिस्ट्री भॉफ़ इंडियन एण्ड इण्डोनेशियन पार्ट, 1927. न्यूयार्क, पृ 47. 2 भगवती-आराधना, 1935, शोलापुर, पृ 46. 3 'चैत्यमायतनं' तुल्ये, अमरकोष, 2, 2, 7.
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