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________________ सिद्धांत और प्रतीकार्थ [ भाग १ को उसके व्यवसाय, वर्ग, जाति आदि के अनुसार फलदायक भी हो सकते हैं। प्रावासगृह के नक्षत्र का क्रमांक वही होगा जो उसके क्षेत्रफल के अंकों में ८ का गुणा करके २७ का भाग देने पर आये। आवासगृह और गृहस्वामी के नक्षत्र में परस्पर अनुकूलता से ही समृद्धि संभव है। गृहस्वामी की समृद्धि के लिए राशि की अनुकूलता भी अनिवार्य है। आवासगृह की राशि का क्रमांक उसके नक्षत्र के क्रमांक में ४ का गुणा करके ६ का भाग देने से प्राप्त होता है। समृद्धि के लिए नक्षत्र और राशि की परस्पर एकरूपता भी आवश्यक है । आवासगृह के नक्षत्र के क्रमांक में ८ का भाग देने पर जो शेष बचे वह व्यय कहलाता है । गृहस्वामी की समृद्धि की दृष्टि से नक्षत्र और व्यय की परस्पर अनुकलता भी आवश्यक है। आवासगृह के नाम या प्रकार के अक्षरों की संख्या और व्यय के रूप में प्राप्त संख्या को आवास गृह के क्षेत्रफल की संख्या में जोड़कर उसमें ३ का भाग देने पर जो शेष बचे वह अंश कहलाता है। १, २, या ३ अर्थात् ० शेष बचने पर अंश का अधिकारी क्रमशः इंद्र, यम और राजा होता है। तारा भी एक ऐसा तत्त्व है जो गृहस्वामी की समृद्धि को प्रभावित करता है। प्रावासगृह के और गृहस्वामी के नक्षत्र के क्रमांकों में जो अंतर हो वह तारा का क्रमांक है। इस आयादि षड्वर्ग के सिद्धांत की आवश्यकता कदाचित् इस कारण से और भी है कि जब भवन या उसके किसी भाग के माप पर विभिन्न ग्रंथों में विभिन्न संख्याएँ लिखी मिलती हैं तब इस सिद्धांत को निर्णायक माना जाता है। स्थापत्य के अतिरिक्त मूर्तिकला में भी इस सिद्धांत का विधान है, किन्तु उसके यथार्थ भाव का अनुगमन कदाचित् ही हो सका । तथापि, उसकी यथार्थ व्याख्या सहज संभाव्य न होने पर भी, उसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। वास्तुपुरुष-चक्र नामक एक सिद्धांत और भी प्रचलित है जिससे भवन के अधिष्ठान, पाद या स्तंभ, प्रस्तार, कर्ण, स्तूपी, शिखर आदि भागों की आनुपातिक संयोजना में सहायता मिलती है। इस सिद्धांत के कई रूपों में से एक रूप का परिज्ञान रेखाचित्र २८ (पृ ५१३) से होगा। रेखाचित्र में जहाँ वास्तुपुरुष के केश, मस्तक, हृदय और नाभि पड़ते हैं वहाँ स्तंभ न बनाया जाये। इसी प्रकार के और बहुत से विधान हैं। मावासगृह और राजप्रासाद जैन ग्रंथों में आवासगृहों और राजप्रासादों के अतिरिक्त चंपा, राजगृह, श्रावस्ती आदि पौराणिक नगरियों, और लोक के वर्णन में उल्लिखित कच्छा नामक तथा अनेक पाताल-स्थित नगरियों के सविस्तार विवरण प्राप्त होते हैं, किन्तु वे सभी अधिकतर पिष्ट-पेषण मात्र हैं और निर्माण-कला अथवा स्थापत्य से संबद्ध तत्त्व उनमें नगण्य हैं। उन विवरणों में जो स्थापत्य और मूर्तिकला से संबद्ध पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है वह अवश्य ही उल्लेखनीय है क्योंकि उससे देश के विभिन्न भागों में लिखे गये स्थापत्य और मूर्तिकला के ग्रंथों के क्रमिक विकास और उनके व्यावहारिक प्रयोग के तुलनात्मक अध्ययन में सहायता मिलती है। इस महत्त्वपूर्ण तथ्य से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है 512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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