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अध्याय 36 ]
स्थापत्य भूमि के घनत्व की परीक्षा के लिए उसमें एक चौबीस अंगुल का गड्ढा खोदा जाये और उसे उसी की मिट्टी से भरा जाये। उस समूची मिट्टी के भर दिये जाने पर भी गड्ढा जितना रिक्त रहे उतना ही कम घनत्व उस भूमि का समझा जाये। इसके विपरीत, गड्ढा भर जाने पर भी मिट्टी बची रहे तो जितनी वह बच रहे उतना ही अधिक घनत्व उस भूमि का समझा जाये। भूमि के घनत्व की परीक्षा की एक अन्य विधि के अनुसार वैसा ही एक गड्ढा खोदा जाये और उसमें जल भर दिया जाये । सौ डग चलकर आने-जाने में जितना समय लगता है उतने समय में वह जल जितना कम सोखा जाये उतना ही अधिक घनत्व उस भूमि का समझा जाये। इन दो में से किसी एक विधि से परीक्षा करके ही भूमि के घनत्व को उत्कृष्ट या निकृष्ट माना जाये। भूमि के रंग विभिन्न वर्णो या जातियों के अनुसार फलदायक होते हैं, ब्राह्मण के लिए श्वेत, क्षत्रिय के लिए लाल, वैश्य के लिए पीला और शूद्र के लिए काला रंग समृद्धि-वर्धक है।
भूमि का चुनाव सभी दृष्टियों से सतर्कतापूर्वक किया जाये। मिट्टी में या भूमि के किसी भी भाग में कोई दोष रहे तो उससे भूस्वामी को निर्धनता, रोग आदि कष्ट हो सकते हैं । जिस स्थान पर किसी निकटवर्ती मंदिर के ध्वज की छाया दिन के दूसरे और तीसरे पहर में पड़ती हो वह स्थान कभी न चना जाये । अस्थि, कोयला आदि कोई भी शल्य या अनिष्टकारक वस्तु न तो भूमि के ऊपर रहने दी जाये ओर न भीतर, उसे निकालने के लिए एक पुरुष की गहराई तक भी उत्खनन कराना पड़े तो वह भी कराया जाये। शल्य का परिज्ञान शेषनाग-चक्र की सहायता से किया जा सकता है। उत्खनन की आवश्यकता पड़े तो वह कई भागों में कराया जाये और शेषनाग-चक्र या वृषवास्तु-चक्र आदि नैमित्तिक विधान के अनुसार उत्खननों में समय का अंतराल भी रखा जाये।
विन्यास-रेखा के निर्धारण में दिशाओं का पर्याप्त ध्यान रखा जाना चाहिए। दिशा-सूचक रेखा का परिज्ञान दिक-साधक शंकु अर्थात् दिशा-सूचक स्तंभ से किया जाये। इसी प्रकार, भूमि को सम-चतुष्कोण भी ध्यानपूर्वक बनाया जाये। इसके अतिरिक्त, भूमि का तल भी, विशेष रूप से मंदिरों और राजप्रासादों के लिए, एकसर बना ही लिया जाये। निर्माण का कार्यारंभ कुछ विशेष मासों में और कुछ विशेष राशियों, नक्षत्रों और ग्रहों के उदयकाल में ही किया जाये, यदि ये सभी एक साथ अनुकूल स्थिति में हों तो उत्तम है। किन्तु, आवासगृह यदि काष्ठ, घास आदि से बनाया जाये तो यह विधान अनिवार्य नहीं। इस नैमित्तिक विधान का पालन, शिलान्यास और द्वार-प्रवेश के अवसर पर भी किया जाये। इन दोनों अवसरों पर धार्मिक अनुष्ठान भी किये जा सकते हैं। स्थपति का यथोचित सम्मान अवश्य किया जाये।
आवासगृह और उसके भागों का माप आयादि-षड्वर्ग अर्थात् छह-सूत्री सिद्धांत के अनुरूप होना चाहिए । आवासगृह या उसके किसी भाग की भूमि का आठवाँ भाग आय कहलाता है । ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और ध्वांक्ष नामक पाठों प्रकार के प्राय निमित्तशास्त्र के अनुरूप तथा उनकी अपनी-अपनी दिशा के आधार पर विभिन्न प्रकृति के होते हैं और इसीलिए वे गृहस्वामी
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