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________________ सिद्धांत और प्रतीकार्य [ भाग १ उक्त ग्रंथों में से विश्वकर्मा के दीपार्णव मण्डन के रूपमण्डन और प्रासादमण्डलन', नाथजी की वास्तुमंजरी आदि में यथास्थान जैन स्थापत्य का भी विवेचन हुआ है, किन्तु केवल जैन स्थापत्य पर कदाचित् एक हो ग्रंथ वत्थुसार-पयरण' लिखा गया। प्राकृत भाषा के इस ग्रंथ में तीन अध्याय हैं : गृह-प्रकरण, बिंबपरीक्षा-प्रकरण और प्रासाद-प्रकरण । दो सौ तिहत्तर गाथाओं का यह ग्रंथ धंध-कलश कुल के जैन श्रीचंद्र के पुत्र फेरु ने अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में विक्रम संवत् १३७२ (१३१५ ई.) की विजया-दशमी के दिन कल्याणपुर में समाप्त किया। उसी वर्ष उन्होंने दिल्ली में एक और ग्रंथ रत्नपरीक्षा की रचना को, जो कदाचित ठक्कूर-फेरु-ग्रंथावली में प्रकाशित हो चुका है। निर्माण कार्य का दिग्दर्शन माप आदि के लिए, वत्थुसार-पयरण के अनुसार, प्रारंभ में पाठ उपकरण आवश्यक हैं : दृष्टिसूत्र अर्थात् केवल देखकर ही समुचित माप का परिज्ञान करना; हस्त अर्थात् एक मापदण्ड जिसकी लंबाई चौबीस अंगुल या ४५ सेण्टीमीटर होती है; मौंज अर्थात् मुंज नामक घास से बनी सूतरी, कार्पासक अर्थात् कपास से बना लंबा सूत्र; अवलंब या साडुल ; काष्ठ-कोण या गुनिया; साधनी अर्थात् आजकल के स्पिरिट लेवल की तरह का एक यंत्र; और विलेख्य या परकार । इनके अतिरिक्त और भी अनेक हथियार रहे होंगे जिनका उल्लेख विभिन्न स्रोतों से प्राप्त हो सकता है। ईंट और काष्ठ से लेकर स्वर्ण और रत्नों तक की सभी सामग्री उत्कृष्ट कोटि की होनी चाहिए । नवीन और प्रथम बार उपयोग में लायी जा रही सामग्री समृद्धिवर्धक होती है। काष्ठ का उपयोग किया जाये या पाषाण का, इस तथा अन्य प्रकार के सामग्री संबंधी प्रश्नों के समाधान निर्माता के वर्ग या जाति और निर्माणाधीन भवन के प्रकार तथा उद्देश्य के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। 1 संपादक : प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा, पालीताना. 2 संपादक : बलराम श्रीवास्तव, 1964, वाराणसी. 3 संपादक : भगवान दास जैन, 1961, अहमदाबाद. 4 संपादक : प्रभाशंकर अोघडभाई, सोमपुरा, प्रासामंजरी नामक ग्रंथ के अंतर्गत, 1965, अहमदाबाद. संपादक : भगवानदास जैन, 1936, जयपुर. इस अध्याय के संबद्ध भाग इसी ग्रंथ पर आधारित हैं, जहाँ अन्य ग्रंथ का प्राधार लिया गया है वहाँ उसका उल्लेख किया गया है । [इस ग्रंथ के महत्त्व के लिए द्वितीय भाग में अध्याय 28 द्रष्टव्य है।-संपादक] भगवानदास जैन, वही; वे लिखते हैं : 'प्रथम पत्र नहीं है यह श्री यशोविजय जैन गुरुकुल के संस्थापक श्री चारित्र विजय महाराज द्वारा प्राप्त हुई है'. 7 भवरलाल नाहटा द्वारा संपादित होने के उल्लेख के लिए द्रष्टव्य : मुनिश्री हजारीमल स्मृतिग्रंथ, 1966, ब्यावर, पृ 105 (लेखक-परिचय)। 8 सामान्यत: वत्थुसार-पयरण पर प्राधारित. 510 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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