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अध्याय 35]
मूर्तिशास्त्र महावीर के चैत्य-वृक्ष का प्राचीनतम उल्लेख कदाचित् आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में आये महावीर के जीवन के प्रसंग में है, प्रथम श्रुतस्कंध से द्वितीय को उत्तरवर्ती काल का माना जाता है, जिसमें उल्लेख तो चौबीसों तीर्थंकरों का है पर जीवन-प्रसंगों का वर्णन केवल चार, अर्थात् ऋषभ, नेमि, पार्श्व और महावीर का ही है। ऐसे कल्प-सत्र में शेष बीस तीर्थंकरों के चैत्य-वक्षों का कोई उल्लेख नहीं । बहुत-सी प्राचीनतर सामग्री को समाविष्ट करके भी जो स्पष्ट ही उत्तरवर्ती काल की रचना है ऐसे समवायांग-सूत्र में भूत, वर्तमान और भविष्य के और भरत क्षेत्र के वर्तमान काल (पारा) के तीर्थंकरों, ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों, चौबीसों तीर्थंकरों के चैत्य-वृक्षों की नामावलि है ।। इनमें से अंतिम नामावलि दिगंबरों और श्वेतांबरों की एक ही है? क्योंकि उसका प्रचलन पाँचवीं शताब्दी से पूर्व तब हा जब दिगंबर-श्वेतांबर-मतभेद प्रखरता से उभरे।
जैन धर्म में वे देव व्यंतर-निकाय में परिगणित हैं जिन्हें वृक्ष-पूजा से संबद्ध माना जाता है । व्यंतर आठ जातियों में विभक्त हैं : पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किनर, किंपुरुष, महोरग (नाग) मौर गंधर्व । प्रत्येक जाति में मुकूट पर क्रमशः ये चिह्न (वृक्ष के रूप में) होते हैं : कदंब, सुलस, वट, खट्वांग, अशोक, चंपक, नाग और तुंबुरु । दिगंबर नामावलि में खट्वांग के स्थान पर बदरी वृक्ष का नाम है। श्वेतांबर नामावलि में खट्वांग ही एक ऐसी वस्तु है जो वृक्ष नहीं प्रतीत होती।
स्थानांगसूत्र में4 चैत्य-वृक्षों की नामावलि है जिन्हें भवनवासी देवों की दस जातियां पूजती थीं; एक अन्य नामावलि तिलोय-पण्णत्ती में है। इससे व्यक्त होता है कि जैन मंदिरों के क्षेत्र में चैत्य-वृक्षों या वृक्ष-पूजक मत का प्रचलन था । चैत्य-वृक्षों की अवधारणा के संदर्भ में, ब्राह्मण और बौद्ध साहित्य में उल्लिखित जीवन-वृक्ष और कल्प-द्रुम की अवधारणा पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। जैन ग्रंथों में भी दस कल्प-द्रुमों का वर्णन है। इनका विस्तृत वर्णन जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में है। हेमचंद्र ने उत्तरकुरु क्षेत्रों के दस प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन इस प्रकार किया है : मद्यांग
1 समवायांगसूत्र, 149, समवाय, पृ 152. चैत्य-वृक्षों के लिए और भी द्रष्टव्य : जीवाजीवाभिगमसूत्र, सूत्र 127,
पृ 125 और सूत्र 142, पृ 251. 2 रामचंद्रन्, पूर्वोक्त, पृ192 तथा परवर्ती. इसमें इस युग के सभी तीर्थंकरों के चैत्य-वृक्षों की एक नामावलि दी
गयी है जो अशुद्ध प्रतीत होती है. दिगंबर नामावलियों के लिए द्रष्टव्य : प्रतिष्ठासारोद्धार, 4, 106, पृ 101.
तिलोय-पण्णत्ती, 4, 916-918, पृ 264. 3 दोनों संप्रदायों से संबद्ध नामावलियों और उनके मूल स्रोतों के लिए द्रष्टव्य : कारफ़ेल, दो कॉस्मॉग्राफी देर इण्वेर,
पृ 273 तथा परवर्ती. 4 स्थानांगसूत्र, 10, 3, सूत्र 766, 2, पृ 487; टीकाकार ने लिखा है कि ये वृक्ष सिद्धायतनों के समीप पूजे जाते थे. 5 तिलोय-पण्णत्ती, 3, 136, 1, पृ 128. 6 विशेष रूप से द्रष्टव्य : आनंदकुमार कुमारस्वामी, एलीमेंट्स प्रॉफ बुद्धिस्ट प्राइकॉनोग्राफी, 1935, कैम्ब्रिज. 7 जम्मूद्वीप-प्रज्ञप्ति, 20, पृ 99 तथा परवर्ती. /प्रवचन-सारोद्धार, 1067-70, 9314 भी द्रष्टव्य./जिनसेन का
हरिबंश-पुराण 1, पृ 146-47. .
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