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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ [ भाग १ आदि दस प्रकार के कल्प-द्र मों से मनुष्यों को अनायास ही सदा वह सब प्राप्त होता है जो वे चाहते हैं। इनमें से मद्यांग नामक कल्प-द्रम से मदिरा प्राप्त होती है, भृग कल्प-द्रम थालियाँ देते हैं, तुर्यांग वाद्य-यंत्र प्रदान करते हैं, दीप-शिखाओं और ज्योतिष्कों से अद्भुत प्रकाश मिलता है, चित्रांग आभूषण देते हैं, चित्ररसों से भोजन उपलब्ध होता है, मण्यंग आभूषण प्रदान करते हैं, गेहकारों से घर प्राप्त होते हैं और अनंग विविध प्रकार के परिधान देते हैं।' मंगल-स्वप्नों की मान्यता भारत में बहुत प्राचीन काल से रही है, जैसा कि छांदोग्य उपनिषद, ५,२,७,८ में पाये उस संदर्भ से सिद्ध होता है जिसमें ऐसे ही एक स्वप्न का प्रभाव बताया गया है। जब कोई भावी तीर्थंकर स्वर्ग से चयकर माता के गर्भ में अवतीर्ण होता है तब माता कुछ मंगल स्वप्न देखती है। माता, श्वेतांबर मान्यता के अनुसार, स्वप्न में चौदह विभिन्न वस्तुएँ देखती है, किन्तु दिगंबर मान्यता से ये स्वप्न सोलह होते हैं। महावीर की माता के द्वारा देखे गये चौदह स्वप्नों का सविस्तार वर्णन कल्पसूत्र में इस प्रकार हैं : (१) चार शुण्डादण्ड-सहित एक उत्तुंग और मनोरम श्वेत गज, (२) प्रकाश-पुंज से चमत्कृत एक श्वेत वृषभ जिसकी ककुद् आकर्षक और शृंग स्निग्धान होते हैं, (३) श्वेत और सुंदर, स्फूर्तिमान सिंह, जिसकी फड़कती पूंछ और लपलपाती जिह्वा हो (४) श्री नामक एक चतुर्भुजी देवी जो अलंकार-विभूषित, कमल-धारिणी और गजों द्वारा अभिषिक्त हो रही होती है, (५) विभिन्न पुष्पों की एक माला, (६) पूर्णचंद्र, (७) रक्तिम सूर्य, (८) एक परम मनोहर पताका जो स्वर्ण-दण्ड पर पाबद्ध और सिंह से चिह्नित हो, (९) जल और कमलों से आपूरित कुंभ जो सौभाग्य का सदन हो, (१०) कमलों और जलचर जंतुओं से प्राप्लावित विशाल सरोवर, (११) उच्छल-तरंग और जलचर जंतुओं से आपूरित क्षीर-सागर, (१२) स्तंभमण्डित देव-विमान जो मालाओं से अलंकृत और चित्रों या पुत्तलिकाओं से सुसज्जित हो, (१३) सभी प्रकार के रत्नों की राशि, और (१४) निरंतर प्रज्वलित निर्धम अग्नि ।2। कल्प-सत्र की पाण्डुलिपि में इन स्वप्नों का चित्रांकन है, एक साथ भी जो ब्राउन की पुस्तक के चित्र १६ के रूप में प्रकाशित है, और अलग-अलग भी जो उसके चित्र २० से ३३ तक के रूप में प्रकाशित हैं । कल्प-सूत्र के चित्रांकनों का जो प्रकार सर्वाधिक प्रचलित है (ब्राउन की पुस्तक के चित्र ६,१८) उसमें सबसे नीचे की पट्टी में पयंक पर लेटी हुई तीर्थंकर-माता का अंकन होता है और ऊपर 1 त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित, (गायकवाड़ ओरियण्टल सीरिज़), अनुवाद; हेलन जॉनसन, पृ 29-30. 2 इन शकुन-सूचक स्वप्नों में में कुछ पर उपयोगी चर्चा और व्याख्या के लिए द्रष्टव्य : आनंदकुमार कुमारस्वामी, 'द कांकरर्स लाइफ़ इन जैन पेंटिंग्स', जर्नल ऑफ़ दि इण्डियन सोसायटी ऑफ़ प्रोरियण्टल पार्ट 3, अंक 2, दिसंबर 1935, पृ 125-44. 3 ब्राउन. मिनिएचर पेंटिंग्स प्रॉफ़ द कल्पसूत्र. अन्य चित्रांकनों के लिए द्रष्टव्य : जैनचित्रकल्पम, 1, चित्र 73. कुमारस्वामी, कैटलॉग प्रॉफ दि इण्डियन कलेक्शन इन द बोस्टन म्यूजियम, 4, चित्र 13, 34./ब्राउन, पूर्वोक्त चित्र, 152, पृ 64./मुनि पुण्यविजय. पवित्र-कल्पसूत्र. चित्र 17, 22. 502 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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