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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्य [ भाग १ चौमुख विरल नहीं हैं। यह भी है कि इस प्रकार की कृतियों में प्रस्तुति की कला के कारण भिन्नता मिलती है, जैसे चौबीस के समूह को तीन आड़ी पंक्तियों में प्रस्तुत किया गया (चित्र ३११ ख), या बड़े समूहों को एक ऐसे मंदिर की अनुकृति के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसपर शिखर का अंकन भी किया गया हो। चैत्य-वृक्षों की चर्चा फिर उठायी जाये। जो सिन्धु-सभ्यता की मुद्राओं पर दृष्टिगत होती है और जो वैदिक तथा स्मृति-साहित्य में उल्लिखित है और जो बहत प्राचीन काल से प्रचलन में रही ऐसी वृक्ष-पूजा का उस वर्ग की धार्मिक मान्यताओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा जिसके साथ बुद्ध और महावीर का विशेष संबंध इसलिए था कि वे वैदिक पुरोहित-वर्ग और उसके कर्मकाण्ड का प्रतिरोध कर सकें। महावीर ऐसे मंदिरों में केवल-ज्ञान के पहले भी ठहरते थे और बाद में भी। बुद्ध को बोधि-लाभ और महावीर को केवल-ज्ञान ऐसे ही चैत्य-वृक्षों के नीचे हुआ था, यह मान्यता तथ्यों पर आधारित रही हो सकती है, और जब अन्य बुद्धों और तीर्थंकरों की नामावलियाँ प्रचलन में पायीं तब दोनों धर्मावलंबियों ने उन सबके चैत्य-वृक्षों का विधान भी किया। परंतु, प्रारंभ में बौद्ध कला में बुद्ध का अंकन मानवाकृति के रूप में नहीं होता था, अतः बोधिवृक्ष को और भी अधिक महत्त्व मिला, किन्तु जैनों ने केवल इतना ही किया कि विभिन्न तीर्थंकरों के चैत्य-वृक्षों की नामावलि बना दी और पूजा तथा कला में उन्हें गौण स्थान दे दिया। परंतु प्राचीन भारत में वक्ष-पूजा का इतना अधिक प्रचलन था कि तीर्थंकर की उदभत मूर्तियों के साथ चैत्य-वक्ष की प्रस्तुति उनके मस्तक के ऊपर पत्रों के अंकन के रूप में आवश्यक हो गयी। जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ने वृक्ष-पूजा को एक नया अर्थ प्रदान किया। चैत्य-वृक्षों की पूजा और कला में प्रस्तुति का कारण यह नहीं था कि उनपर प्रेत और देवता बसेरा करते थे, वरन् यह था कि उनके नीचे बुद्ध को बोधि-लाभ और महावीर को केवल-ज्ञान हा था। चैत्य-वक्ष के नीचे सर्वप्रथम कदाचित तीर्थंकर मूर्ति को स्थापित किया गया । चौसा से प्राप्त मूर्ति-समूह में एक कांस्य-मूर्ति (प्रथम खण्ड में चित्र २२ ग) चैत्य-वृक्ष की है जो इस समय पटना संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह मूर्ति कदाचित् इसी पद्धति से पूजी जाती थी, उसके पास एक लघु तीर्थकर-मूर्ति अलग से रखी जाती थी। मंदिरों के प्रचलन के साथ-साथ यह पद्धति क्रमशः समाप्त होती गयी, परंतु ऋषभनाथ से संबद्ध एक ऐसा वृक्ष (गुजराती में रायण-वृक्ष) शत्रुजय पर्वत पर अब भी पवित्र माना जाता है और पूजा जाता है। वृक्ष-पूजक संप्रदाय के कारण चैत्य-वृक्षों को महत्त्व विशेष रूप से दिया जाता था, यह तथ्य उन विशेष प्रकार की तीर्थंकर-मूर्तियों से प्रकट है जिनपर एक बृहदाकार वृक्ष के अंकन के नीचे (चित्र ३१२ क) प्रायः सभी शेष प्रातिहार्यों (जिन-मूर्ति के परिकर के अंग) का अंकन या तो लुप्तप्राय हो जाता है या गौण ।। 1 द्रष्टव्य : शाह, पूर्वोक्त, 1955, चित्र 72, तिन्नवेली जिले के कलुगुमल से प्राप्त ; चित्र 73, पाटन के पंचासर देरासर से प्राप्त ; चित्र 75, सूरत के एक दिगंबर जैन मंदिर से प्राप्त. 500 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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