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________________ अध्याय 35 ] मूर्तिशास्त्र चबूतरा बनाया जाने लगा और उसपर शिलापट स्थापित किया जाने लगा । ये शिलापट सभी वृक्षों के नीचे नहीं वरन् केवल उनके नीचे स्थापित किये जाते थे जिनकी प्रेतों के बसेरों के रूप में पूजा की जाती थी । कुछ चैत्य वृक्षों के नीचे कदाचित् चबूतरा तो होता पर शिलापट स्थापित न होता, और कुछ चैत्य वृक्ष वैसे ही केवल वेदिका के साथ रहे आये । परंतु भरहुत के शिल्पांकनों में शिलापटों को चैत्य वृक्ष के पास आसनों (स्टूलों) पर स्थापित करके उनकी पूजा करते हुए भक्त दिखाये गये हैं । विकास के एक ऐसे चरण का अनुमान किया जा सकता है जब शिलापट के ऊपरी तल पर ही पूज्य वस्तु का उद्धृत उत्कीर्ण कर लिया जाता और उसपर नैवेद्य अर्पित किया जाता । मथुरा के कुछ आयाग-पटों पर मध्य में तीर्थंकर के उद्धृत उत्कीर्ण किये गये । श्रायाग-पट शब्द से प्रकट है कि उनपर या उनके पास नैवेद्य अर्पित किया जाता था । जैन आगमों में एक चैत्य ( जक्खाययण- टीकाकारों के अनुसार यक्ष- चैत्य ) का असंक्षिप्त वर्णन (वर्णक) औपपातिक सूत्र के सूत्र २-५ में पूर्णभद्र चैत्य के वर्णन के रूप में किया गया है । वर्णन यह है कि चंपानगरी के उत्तर-पूर्व में स्थित आम्रशाल वन में पूर्णभद्र चैत्य इतने समय से विद्यमान रहा ( चिरातीत ) कि लोग उसे प्राचीन ( पोराण ) कहने लगे, वह प्रसिद्ध तो था ही । उसके चारों ओर एक विशाल वन- खण्ड था जिसके मध्य में स्थित उत्तुंग अशोकवृक्ष के नीचे एक सिंहासन पर एक पृथ्वी - शिलापट्ट था जो वृक्ष की ओर थोड़ा-सा झुका हुआ था । वह अंजन की भाँति काला, नीलोत्पल की भाँति गहरा नीला, दर्पण-तल ( अयंसय-तलोवमे ) के समान चमकता हुआ (प्रतिबिम्ब-ग्राही ) था और उसका स्पर्श नवनीत, कपास आदि की तरह कोमल था । संयोगवश, जैसा मैंने पहले लिखा, यह वर्णन 'नार्दर्न ब्लैक-पॉलिश्ड वेयर' नाम से प्रसिद्ध उस मृत्पट्ट (पृथ्वी- शिला-पट्ट) का है जिसपर अत्यंत श्रोपदार पॉलिश है और जो छठी शताब्दी ई० पू० में विद्यमान था । 2 इस पृथ्वी - शिलापट्ट से कंकाली-टीला के प्रयाग-पटों ने परंपरागत आकार-प्रकार प्राप्त किया । इस तथ्य की पुष्टि लोणशोभिका की पुत्री वसु के द्वारा स्थापित प्रायाग-पट के उस प्रभिलेख 1 ( बरु), बेणी माधव. भरहुत 1937. कलकत्ता. खण्ड 3, रेखाचित्र 26, 28, 30, 31, 32 / कुमारस्वामी, पूर्वोक्त, रेखाचित्र 41, 46, 51. 2 घोषिताराम बिहार की नीवों में विभिन्न रंगों के नार्दर्न ब्लैक-पॉलिश्ड वेयर मिले हैं । मध्यकालीन टीकाकार इनका प्रतीकार्थं समझने में असमर्थ रहे और उन्होंने शिलापट्ट शब्द के पहले के पृथ्वी शब्द को समझाये बिना ही छोड़ दिया । यह वस्तुतः पूर्णभद्र का चैत्य था, न कि मातृदेवी पृथ्वी का मंदिर. यह पट्ट वास्तव में पृथ्वी - शिला (मिट्टी से बना ) था. 3 Jain Education International 495 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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