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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ [ भाग 9 और उनपर बसेरा करें; उन्हें देवों की भाँति सम्मान दिया जाता था। इन वृक्षवासी प्रेतों को पूजा अर्पित की जाती और उन्हें प्रसन्न करने के लिए वृक्ष की डालियों पर मालाएँ चढ़ायी जातीं, उसके चारों ओर दीप जलाये जाते और उसके नीचे बलि दी जाती । 2 मनु और याज्ञवल्क्य का स्नातकों के लिए विधान है कि वे मार्ग में मिलने वाले पवित्र वृक्षों (अश्वत्थ श्रादि) की प्रदक्षिणा किया करें । महाभारत में ऐसे वृक्षों को काटने तक का निषेध किया गया है जिन्हें चैत्य माना जाता हो । काणे के अनुसार चैत्य 'अश्वत्थ श्रादि ऐसे वृक्ष हैं जिनके चारों ओर एक चबूतरा ( चैत्य ) 3 बना हो' । ' पत्थर से बना ऐसा चबूतरा या बैठका अर्थात् पीठ यक्ष का रैनबसेरा (भवन) माना जाता, जैसा कि कुमारस्वामी ने लिखा है; वे यह भी लिखते हैं : 'बौद्ध और जैन साहित्य में उल्लिखित अधिकतर यक्ष - चेतिय पवित्र वृक्ष रहे होंगे ।” संघदास गणी की वसुदेव- हिण्डी ( लगभग पाँचवीं शताब्दी) में लिखा है कि मगध जनपद के सालिग्गाम में एक मनोरमा नामक उद्यान था । उसमें जक्ख सुमनो था जिसका पत्थर का बैठका या चबूतरा (सिला - शिला) अशोक वृक्ष के नीचे था, शिला का नाम सुमना था । उसपर लोग उस यक्ष की पूजा करते थे ।' सत्य नाम के किसी व्यक्ति ने इस यक्ष को प्रसन्न करने के लिए सुमना शिला पर कायोत्सर्ग - मुद्रा में ध्यान लगाकर खड़े-खड़े रात बितायी । प्रतीत होता है कि शिला शब्द का प्रयोग यहाँ उस शिला या शिल्पखण्ड के लिए हुआ जो अशोकवृक्ष ( चैत्य वृक्ष के रूप में आदृत) के नीचे चबूतरे ( सिला-पएस) पर स्थापित था और जिसपर ध्यानमग्न सत्य खड़ा हो सका था । इस प्रकार, पहले जिनके चारों ओर एक लघु वेदिका ( वैसी ही जैसी सिंधुघाटी की मुद्राओं और मथुरा के प्रयाग-पटों पर है ) 7 ही बनी होती थी उन चैत्य वृक्षों के नीचे अब, बुद्ध और महावीर के समय तक, कदाचित् उससे भी कुछ पूर्व, उनके चारों ओर पाषाण से ( या ईंटों से ) एक 1 छांदोग्य उपनिषद्, 6, 11; / जातक, 4, पृ 154. 2 जातक 5, पृ 472, 474, 488; 4, 210, पृ 353; 3, पृ 23; 4, 153. साथ ही मनुस्मृति, 3, 88 / बृहद्-गौतम, जीवानंद विद्यासागर के संग्रह में, भाग 2, पृ 625. 3 चित्य और चैत्य शब्दों के अर्थ के उद्भव और विकास के लिए और जैन आगम साहित्य में उल्लिखित तीन प्रकार के चैत्यों के लिए देखिए शाह, पूर्वोक्त, 1955, पृ43-45. 4 पाण्डुरंग वामन काणे), हिस्ट्री ग्रॉफ़ धर्मशास्त्र, 2,2, पृ 895. 5 कुमारस्वामी, पूर्वोक्त, पृ 7, टिप्पणी 4 और 47. 6 वसुदेव- हिण्डी, पृ 85 और 88. 7 स्मिथ, (वी ए) व जैन स्तूप एण्ड अवर एण्टिक्विटीज प्रॉफ़ मथुरा, प्रायॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ इण्डिया, न्यू इंपीरियल सीरिज, 20, 1901, इलाहाबाद, चित्र 9, पृ 16. इस शिला पर उत्कीर्ण अभिलेख अत्यंत छिन्न-भिन्न हो गया है, एपिग्राफिया इण्डिका, 2, चित्र 1 ख पृ 311-13. Jain Education International 494 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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