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अध्याय 35 ]
मूर्तिशास्त्र
कंकाली-टीला के उत्खननों से प्राप्त कुषाणकालीन पुरावशेषों में सिद्धचक्र या नव-देवता की ऐसी कोई रेखाकृति नहीं है जिसमें पाँचों परमेष्ठियों की एक साथ प्रस्तुति हो, यद्यपि उनमें से तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्याय और साधु की पृथक्-पृथक् प्रस्तुतियाँ दृष्टिगत होती हैं । सिद्ध की पृथक् प्रस्तुति के विषय में इस निर्णय पर पहुँचना कठिन है कि जिन मूर्तियों पर किसी तीर्थंकर का चिह्न न हो उन्हें सिद्धों की मूर्तियाँ माना जाता था या नहीं । सिद्ध अशरीरी, अर्थात् मानव शरीररूपी बंधन से भी मुक्त होते हैं, इसीलिए आरंभिक काल में उनकी मूर्ति की पूजा कदाचित् नहीं की गयी । अवश्य ही, दिगंबर मंदिरों में विद्यमान बहुत बाद की कांस्य मूर्तियों में सिद्ध की प्रस्तुति धातुफलक पर कटे स्टेंसिल के रूप में मिलती है, और सिद्धचक्र तथा नव-देवता की रेखाकृतियों की पाषाणों पर और चित्रांकनों में हुई मध्यकालीन प्रस्तुतियों में तो सिद्ध की भी प्रस्तुति हुई ही है ।
परंतु मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन अवशेषों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि विकास के आरंभिकतम चरणों में चैत्य- स्तूप, चैत्य-वृक्ष और प्रयाग-पटों की पूजा की जाती थी । वृक्ष-पूजा न केवल भारत में प्रत्युत अन्य देशों में भी प्रतिप्राचीन काल में होती थी । क्रिस्मस वृक्ष इसका एक उदाहरण है । अनेक मुद्राओं और ठप्पों पर विद्यमान प्रस्तुतियों से प्रमाणित है कि सिंधु सभ्यता में भी वृक्ष-पूजा प्रचलित थी । चन्हू-दड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर पिप्पल वृक्ष की प्रस्तुति है ।' हड़प्पा से प्राप्त कुछ ठप्पों पर वृक्षों को एक दीवार या वेदिका से घिरा हुआ प्रस्तुत किया गया है । 'अभी यह अनिश्चित है कि वृक्ष पूजा का संबंध वृक्षों के प्राकृतिक रूप से था या उनकी अधिष्ठाता आत्माओं से± ।' तैत्तिरीय ब्राह्मण (१,१, ३) सात पवित्र वृक्षों का उल्लेख है । ऋग्वेद के प्राप्री-सूक्तों में वनस्पतियों की स्तुति की गयी है प्रोषधियों को 'माताएँ' और 'देवियाँ' कहा गया है और उनकी स्तुति मुख्यतः जल और पर्वतों के साथ की गयी है । 4 चैत्य - वृक्षों का उल्लेख अथर्ववेद- परिशिष्ट, ७१ में मिलता है, उसमें बड़े वृक्षों को देवता कहा गया है; उनका संबंध मानव की जननी - शक्ति से जोड़ा गया है और उनपर रहने वाली अप्सराम्रों से अनुरोध किया गया है कि वे वहाँ से गुजरने वाली वरयात्राओं का मंगल करें ।' श्रात्मानों या प्रेतों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे वृक्षों पर रहें
में
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1 जॉन मार्शल मोहन-जो-दड़ो एण्ड वि इण्डस सिविलाइजेशन. 1931, 1. लंदन. पृ 312. / मजूमदार. (एन जी) एक्सप्लोरेशंस इन सिंघ, मेमॉयर्स ऑफ़ दि प्रायॉलॉजिकल सर्वे श्रॉफ़ इण्डिया, अंक 41, 1934, दिल्ली. चित्र 17.
2
व वैदिक एज, संपादक : रमेशचंद्र मजूमदार धोर पुसालकर, (एडी) 1951, लंदन, पृ 188.
3 मेक्डॉनल ( ए ए ). वैदिक माइयॉलॉजी. 1897. स्ट्रासवर्ग. पृ 154.
4 वही, ऋग्वेद संहिता, 10, 97, 4 जिसमें वैसा ही लिखा है जैसा यजुर्वेद संहिता, 12,78 में और तैत्तिरीयसंहिता 4, 2, 6, 1 में.
5 आनंदकुमार कुमारस्वामी. हिस्ट्री ऑफ़ इण्डियन एण्ड इण्डोनेशियन श्रार्ट. 1927. लंदन. पृ 41.
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