________________
अध्याय 35]
मूर्तिशास्त्र भी नहीं जो सामान्य अर्थ में प्रचलित है वरन् किसी भी कृतकृत्य मनुष्य अर्थात् मुक्त प्रात्मा की उस गुण-राशि की पूजा से है जिसका, तीर्थंकर-मूर्ति की पूजा के रूप में, कोई पूजक अनुस्मरण करता है, स्तवन करता है और अपने-आप में जिसकी अभिव्यक्ति करता है। अतः एक मूर्ति किसी तीर्थंकर या महापुरुष की अपेक्षा उक्त गुण-राशि की प्रतीक अधिक सिद्ध होती है। मुक्त आत्माएं अर्थात् सिद्ध अर्थात् तीर्थकर (वे सिद्ध जो श्रावकों, श्राविकाओं, साधुओं और साध्वियों के संघ के रूप में जैन तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं) ऐसी आत्माएँ हैं जो राग और द्वेष से मुक्त हो चुकी हैं, इसीलिए अपनी मूर्तियों के पूजकों पर वे न प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न । ऐसी मूर्ति की पूजा के द्वारा भक्त 'जिन' की विशेषताओं या गुणों का स्मरण करता है और उन्हें स्वयं अपने जीवन-प्राण में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है।
इस कारण से स्पष्ट है कि मूर्ति-पूजा का सूत्रपात और स्वीकृति जैन धर्म में केवल इसलिए हुई क्योंकि जन-साधारण या श्रावक-वर्ग उसके बिना रह नहीं सकता था और कदाचित् वह किसी-नकिसी प्रकार की मूर्ति-पूजा का अभ्यस्त रहा था। यक्षों, नागों, भूतों, मुकुंद, इंद्र, स्कंद, वासुदेव, वृक्षों, नदियों आदि की पूजा के उल्लेख जैन आगमों में प्रायः मिलते हैं। इन देव-देवियों की स्तुति वर की आशा से, संतान-प्राप्ति के लिए तथा ऐसी ही किसी अपेक्षा से की जाती थी। इसीलिए, स्वभावतः जैन धर्म में इस प्रकार की पूजा का समावेश तब हुआ जब उसमें आत्मिक साधना और आम्नाय-भेदों के विकास-क्रम के अनुसार तीर्थंकरों, सिद्धों और साधुओं की पूजा का सूत्रपात हुआ। जैनेतर प्रकृति और आम्नाय के तत्त्वों की पूजा को स्थानापन्न करने और उनके निराकरण या परिहार के प्रयास में भी कदाचित् यह सूत्रपात हा । यह अत्यंत स्वाभाविक था कि प्रारंभ में अहंतों (तीर्थकरों), सिद्धों प्राचार्यों (किसी विशेष गण या गच्छ या कुल के साधुओं, साध्वियों और उनके अनुयायियों के प्रमुख), उपाध्यायों (वे साधु जो शास्त्रों का अध्ययन और व्याख्यान करते हैं) और साधुओं की ही मूर्तियों की पूजा का सूत्रपात हुआ और वह अनुमत हुई। इन्हें पाँच लोकोत्तम या पंच-परमेष्ठी कहा जाता है।
सर्वोत्कृष्ट और पूज्योत्तम स्तुति और मंत्र के रूप में प्रचलित जैन नवकार-मंत्र या नमस्कारमंत्र में इन्हीं पाँच लोकोत्तमों, अहंतों, सिद्धों, प्राचार्यों, उपाध्याओं और साधुओं को, पृथक्-पृथक सूत्रों में, नमस्कार किया गया है।
एक कमल-प्रतीक पर उसकी चार पंखुड़ियों पर (प्रत्येक दिशा में एक) चार की और मध्य में अहंत अर्थात् तीर्थकर की प्रस्तुति की गयी । यद्यपि इस प्रकार की प्रस्तुति किसी प्राचीन कलाकृति पर दृष्टिगत नहीं होती तथापि प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में प्रारंभ से ही इन पांचों लोकोत्तमों को जैन धर्म में पूजा का सर्वोत्कृष्ट पात्र माना गया।
कुछ समय पश्चात्, ऐसे कमल-प्रतीक पर पूर्व, दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशामों की पंखडियों के मध्य एक-एक पंखुड़ी और बनायी जाने लगी जिनपर चार अन्य द्रव्यों की प्रस्तुति की गयी। .
491
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org